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________________ भूमिका : १७९ इस श्लोक में भी निदर्शना, अतिशयोक्ति, रूपक, दीपक, उत्प्रेक्षा, समासोक्ति और अनुप्रास इन सात अलङ्कारों में अंगागिभाव रूप से सम्बन्ध होने के कारण संकर अलङ्कार पूर्ण रूप से स्पष्ट हो रहा है। __उपर्युक्त प्रयोगों की भाँति ही आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् के अधिकांश स्थलों पर संकर अलङ्कार के प्रयोग प्रस्तुत किये हैं। संकर अलङ्कार के प्रयोग में मेरुतुङ्ग की निपुणता अवश्यमेव प्रशंसनीय है, क्योंकि एक हो श्लोक में इतने सारे अलङ्कारों का जमघट कर, उनमें से किसी में किञ्चिदपि खण्डता न आने देना आसान कार्य नहीं है। आचार्य मेरुतुङ्ग ने इसमें सफलता प्राप्त की है, अतः आचार्य मेरुतुङ्ग को संकर अलङ्कार के प्रयोग में निस्संदेह सिद्धहस्त कहा जा सकता है । __इस प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग द्वारा जैनमेघदूतम् में विवेचित उपर्यक्त विभिन्न शब्दालङ्कारों एवं अर्थालङ्कारों के विवेचन से यह पूर्णतया परिलक्षित होता है कि आचार्य मेरुतुङ्ग अलङ्कार-निरूपण-कला में अत्यन्त सिद्धहस्त हैं। हमने देखा है कि आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में विशेष रूप से श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, समासोक्ति, काव्यलिङ्ग, उदात्त आदि अलङ्कारों का निरूपण किया है। शब्दालङ्कारों में मात्र अनुप्रास अलङ्कार एवं श्लेष अलङ्कार का बहुलता के साथ प्रयोग किया है और वक्रोक्ति अलङ्कार का भी एक स्थल पर प्रयोग किया है। आचार्य मेरुतुङ्ग की इस अलङ्कार-प्रस्तुति में कहीं भी कोई ऐसा तत्त्व नहीं आ सका है, जो भाव को बाधित कर सके । उनके श्लेष अलङ्कार के प्रयोग वास्तव में सराहनीय हैं। श्लेष के इन प्रयोगों के दर्शनोपरान्त अनायास ही आचार्य मेरुतुङ्ग के प्रति प्रशंसा के दो शब्द प्रस्फुटित हो पड़ते हैं श्लेषः मेरुतुङ्गस्य । अलङ्कार-समीक्षण (कालिदासीय मेघदूत के परिप्रेक्ष्य में): ___ अलङ्कार-निरूपण में आचार्य मेरुतुङ्ग एवं महाकवि कालिदास दोनों ही अति निपुण हैं, ऐसा इन दोनों कवियों के दूतकाव्यों के अवलोकन से ज्ञात होता है। दोनों कवियों ने अपने काव्यों में विभिन्न अलङ्कारों को नियोजित किया है, जो प्रायः एक समान ही हैं। शब्दालङ्कारों के अन्तर्गत अनुप्रास अलङ्कार का दोनों दूतकाव्यों में सर्वाधिक प्रयोग उपलब्ध होता है। अतः अनुप्रास के प्रयोग में दोनों कवियों ने पर्याप्त रुचि प्रदर्शित की है, इसकी सिद्धि इसी से होती है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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