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१७८ : जैनमेघदूतम् से सम्बद्ध रहा करते हैं, या एकत्र अवस्थित रहा करते हैं, या सन्देह के विषय बन जाया करते हैं
अङ्गाङ्गित्वेऽलङ्कृतीनां तद्वदेकाश्रयस्थितौ।
सन्दिग्धत्वे च भवति सङ्करस्त्रिविधः पुनः ॥ अर्थात् अलङ्कारों का जल और दुग्ध सा मिश्रण संकर अलङ्कार का जनक है । यह मिश्रण तीन प्रकार का होता है।
संकर अलङ्कार के निरूपण के प्रति भी आचार्य मेरुतुङ्ग ने वही दृष्टि अपनायी है, जो संसृष्टि अलङ्कार के प्रयोग में रखो है । मेरुतुङ्ग ने निस्संकोच भाव से पाँच-पाँच, छ:-छः अलङ्कारों के समूह को एक-एक श्लोक में प्रयुक्त कर तथा उनमें परस्पर अंगागिभाव प्रदर्शित करते हुए संकर अलङ्कार के प्रयोग प्रस्तुत किये हैं। संकर अलङ्कार की प्रस्तुति के लिए अन्य अनेक अलङ्कारों में जिस प्रकार परस्पर अंगागिभाव सम्बन्ध दिखाया गया है, उसमें विचित्रता बस इसी बात को देखकर लगती है कि एक ही स्थल पर इस प्रकार अनेक अलङ्कारों का परस्पर अंगागिभाव सम्बन्ध प्रदर्शित करने पर भी श्लोकों की भाषा एवं भावों में किञ्चिदपि अन्तर नहीं पड़ा है । यथा
कश्चित्कान्तामविषयसुखानीच्छुरत्यन्तधीमान् ऐनोवृत्ति त्रिभुवनगुरुः स्वैरमुज्झाञ्चकार । दानं दत्त्वा सुरतरुरिवात्युच्चधामारुरुक्षुः
पुण्यं पृथ्वीधरवरमथो रैवतं स्वीचकार ॥ काव्य के इस प्रथम श्लोक में हो देखिये कि हेतु, दीपक, अवसर, उपमा, जाति और श्लेष इन छः अलङ्कारों में अंगागिभाव रूप से सम्बन्ध होने के कारण संकर अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है।
वाता वाद्यध्वनिमजनयन् वल्गु भृङ्गा अगायंस्तालान् दधे परभृतगणः कोचका वंशकृत्यम् । वल्ल्यो लोले: किशलयकास्यलीलां च तेनुस्तद्भक्त्येति व्यरचयदिव प्रेक्षणं वन्यलक्ष्मीः ॥
१. साहित्यदर्पण, १०/९८ । २. जैनमेघदूतम्, १/१ ।। ३. वही, २/१४।
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