SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका : १७७ कह सकते हैं । परस्पर निरपेक्ष अलङ्कारों का सम्मिश्रण “तिल और तण्डुल” के सम्मिश्रण के समान होने के कारण, संसृष्टि अलङ्कार की पृथक् रूपरेखा का नियामक है । आचार्य मेरुतुङ्ग ने संसृष्टि अलङ्कार के प्रयोग में सर्वाधिक रुचि प्रदशित की है। उन्होंने अपने काव्य में छः-छः, सात-सात या इससे भी अधिक अलङ्कारों का संश्लेष कर संसृष्टि अलङ्कार को प्रस्तुत किया है । जैनमेघदूतम् के अधिक प्रयोग संसृष्टि अलङ्कार के अन्तर्गत ही हैं, क्योंकि इनके अधिकांश श्लोकों में प्रयुक्त समस्त अलङ्कार निरपेक्ष रूप से ही अवस्थित मिलते हैं । आचार्य मेरुतुङ्ग की यह विशेषता है कि इतने अधिक अलङ्कारों का एक साथ एक श्लोक में ही संश्लेष होने पर भी भाषा और भाव पूर्णतया स्पष्ट एवं अर्थयुक्त ही हैं । उनमें किञ्चिदपि अन्तर नहीं आया है । इन्हीं विशेषताओं को निम्न संसृष्टि के प्रयोग में देख सकते हैं 11 हेतोः कस्मादहिरिय तदाऽऽसञ्जिनीमप्यमुञ्चन्मां निर्मोकत्वचमिव लघु ज्ञोऽप्यसौ तन्न जाने । यद्वा देवे दधत विमुखीभावमाप्तोऽप्यमित्रेत्तर्णस्य स्यात्किमुनियमने मातृजङ्घा न कील: ' 11 इस श्लोक में उपमा, श्लेष, विरोध, निषेध, अर्थान्तरन्यास, स्वभावोक्ति आदि अलङ्कारों का परस्पर निरपेक्ष रूप से तिलतण्डुलवत् संश्लेष होने के कारण यहाँ पर संसृष्टि अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है । इसी प्रकार अन्य अनेक श्लोकों में जहाँ-जहाँ आचार्य मेरुतुङ्ग ने कई अलङ्कारों का निरपेक्ष-संश्लेष पूर्वोक्तवत् प्रस्तुत किया है, वहीं संसृष्टि अलङ्कार का सुन्दर प्रयोग स्वयमेव बन गया है । आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपने प्रयोगों में छः- सात अलङ्कारों की संसृष्टि उपस्थित कर अपनी अलङ्कार-निपुणता को प्रदर्शित किया है, जो सराहनीय है । संकर : संकर अलङ्कार का लक्षण विश्वनाथ कविराज ने इस प्रकार दिया है कि संकर वह अलङ्कार है, जिसे दो या दो से अधिक अलङ्कारों का ऐसा सम्मिश्रण कहा करते हैं, जिसमें वे या तो अंगागिभाव - सम्बन्ध १. जैनमेघदूतम्, १/७ १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy