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________________ १७६ : जैनमेघदूतम् लिए जो निषेध-अर्थात् निषेध सा, न कि वास्तविक निषेध-किया जाता है, वह निषेध अलङ्कार होता है। आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में निषेध अलङ्कार के दो प्रयोग प्रस्तुत किये हैं, जो अपने भावों से परिपूर्ण भी हैं। उनमें से एक इस प्रकार है हेतोः कस्मादहिरिव तदाऽऽसञ्जिनीमप्यमुञ्चन्मां निर्मोकत्वचमिव लघुज्ञोऽप्यसो तन्न जाने। यद्वा देवे दधति विमुखीभावमाप्तोऽप्यमित्रे त्तर्णस्य स्यास्किमु नियमने मातृजङ्घा न कोलः ॥ इस श्लोक में राजीमती के इस कथन में "श्रीनेमि ने अपने में आसक्त मुझको किस कारण छोड़ दिया है" विशेष उत्कर्ष प्रकट करने के लिए "तन्न जाने" यह निषेध किया गया है। अतः यहाँ पर निषेध अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है। इसी तरह से जैनमेघदूतम् के एक अन्य श्लोक में भी आचार्य मेरुतुङ्ग ने निषेध अलङ्कार का एक दूसरा प्रयोग प्रस्तुत किया है। अतः निषेध के प्रयोग में भी आचार्य मेरुतुङ्ग कुशल प्रतीत होते हैं। .. संसृष्टि : कविराज विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में संसृष्टि अलङ्कार का लक्षण स्पष्ट करते हुए लिखा है कि संसृष्टि वह अलङ्कार है, जिसे परस्पर निरपेक्ष अलङ्कारों की 'तिलतण्डुलवत्' एकत्र अवस्थिति कहा करते हैं मिथोऽनपेक्षमेतेषां स्थितिः संसृष्टिरुच्यते। अर्थात् जैसे स्वर्ण और मणि के अलङ्कार अपना अलग-अलग सौन्दर्य रखा करते हैं और परस्पर संश्लिष्ट होने पर एक और ही सौन्दर्य की सृष्टि किया करते हैं, वैसे ही शब्द और अर्थ के अलङ्कार भी अलग-अलग सौन्दर्य तो रखा ही करते हैं, किन्तु परस्पर संश्लेष में एक और ही विचित्र सौन्दर्य की झलक दिखलाया करते हैं। अलङ्कारों का परस्पर संश्लेष दो प्रकार का हो सकता है-प्रथम वह, जिसे परस्पर निरपेक्ष अलङ्कारों का संश्लेष कहा जा सकता है और द्वितीय वह, जिसे परस्पर सापेक्ष अलङ्कारों का संश्लेष १. जैनमेघदूतम्, १/७। २. वही, १/२ । ३. साहित्यदर्पण, १०/९८ । . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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