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भूमिका : १७५ पटुता का सुन्दर परिचय दे दिया है। इसलिए अवसर अलङ्कार के प्रयोग में भी आचार्य मेरुतुङ्ग श्रेष्ठ सिद्ध होते हैं।
अतिशय : रुद्रट ने काव्यालङ्कार में अतिशय अलङ्कार का लक्षण इस प्रकार से किया है कि जिस अलङ्कार में अर्थ और धर्म के नियम, प्रसिद्धि के बाध के कारण कभी कहीं लोक के प्रतिकूल होते हैं, उसे उस नियम का अतिशय अलङ्कार कहते हैं
यत्रार्थधर्मनियमः प्रसिद्धिबाधाद्विपर्ययं याति ।
कश्चित्क्वचिदतिलोकं स स्यादित्यतिशयस्तस्य' । अर्थात् जिस अलङ्कार में अर्थ और धर्म का नियम अपने नियत स्वरूप के विपरीत हो जाता है, वह अतिशय अलङ्कार होता है ।
अतिशय अलङ्कार का प्रयोग आचार्य मेरुतुङ्ग ने मात्र एक ही स्थान पर किया है, जो निम्न है
रोदोरन्ध्र सुरनरवराहूतिहेतोरिवोच्चैरातोद्यौषध्वनिभिरभित: पूरिते भूरितेजाः । अध्यारोहन्मदकलमिभं विश्वभर्तीपवाद्यं
गत्यैवाधःकृतिमतितरां प्रापिपत् पौनरुक्त्यम् ॥ यहाँ पर 'गजराज पहले ही उनकी गति से अध:कृत हो चुका था, सम्प्रति श्रीनेमि के आरोहण पर पुनः अधःकृत हो गया' इस कथन में अतिशय अलङ्कार है, क्योंकि इसमें गज के नियत धर्म का बाध हो रहा है।
इसप्रकार जैनमेघदूतम् में अतिशय अलङ्कार का भी प्रयोग करके आचार्य मेरुतुङ्ग ने अलङ्कार-प्रयोग में अपनी निपुणता का परिचय दिया है।
निषेध : काव्यप्रकाशकार आचार्य मम्मट ने निषेध अलङ्कार का लक्षण इस प्रकार दिया है कि जो बात कहना चाहते हैं, उसमें विशेष उत्कर्ष प्रकट करने के लिए जो उसका निषेध किया जाय, तो वह निषेध अलङ्कार होता है
निषेधो वक्तु मिष्टस्य यो विशेषाभिधित्सया। अर्थात् प्रकृत होने से जिसको गौण या उपेक्षणीय नहीं कहा जा सकता है, ऐसे अर्थ के अवर्णनीयत्व अथवा अतिप्रसिद्धत्वरूप विशेषता को बतलाने के १. काव्यालङ्कारसत्र, ९/१ । २. जैनमेघदूतम्, ३/३१ । ३. काव्यप्रकाश, १०/१०६ ।
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