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१७४ : जैनमेघदूतम्
आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में भाव अलङ्कार का नाममात्र के लिए एक प्रयोग कर दिया है । जो निम्न प्रकार है
सध्द्रीचीभिः स्खलितवचनन्यासमाशूपनोतः स्फीतैस्तैस्तैमलयजजला विशीतोपचारैः । प्रत्यावत्ते कथमपि ततश्चेतने दत्तकान्ता
कुण्ठोत्कण्ठं नवजलमुचं सा निदध्यौ च दध्यौ ॥ इस श्लोक में दत्तकान्ता आदि नवमेघ के विशेषण राजीमती द्वारा स्वामो श्रीनेमि के अनुरागभाव को सूचित करते हैं। अतः यहाँ पर भाव अलङ्कार स्पष्ट रूप से है। यद्यपि आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में भाव अलङ्कार का एक ही प्रयोग किया है, फिर भी यह प्रयोग भाव एवं अर्थ दोनों के प्रकटन में पूर्ण सक्षम है।
अवसर : अवसर अलङ्कार का लक्षण स्पष्ट करते हुए काव्यालङ्कार में रुद्रट ने कहा है कि कथन के प्रसंग में अर्थ को अन्य अर्थ से उत्कृष्ट अथवा सरस बनाने के लिए जो उपलक्षण किया जाता है, उसे अवसर अलङ्कार कहते हैं
अर्थान्तरमुत्कृष्टं सरसं यदि वोपलक्षणं क्रियते ।
अर्थस्य तदभिधानप्रसंगतो यत्र सोऽवसरः ॥ आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में अवसर अलङ्कार का एक प्रयोग किया है, वह इस प्रकार है
कश्चित्कान्तामविषयसुखानीन्छुरत्यन्तधीमानेनोवृत्ति त्रिभुवनगुरुः स्वरमुज्झाञ्चकार । दानं दत्वा सुरतरिवात्युच्चधामारुरुक्षुः
पुण्यं पृथ्वीधरवरमथो रैवतं स्वीचकार । इस श्लोक के इस कथन से स्पष्ट होता है कि श्रीनेमि के द्वारा रैवतक को स्वीकार करने में किसी ने कान्ता का त्याग कर रैवत को स्वीकार किया' यह उपलक्षण किया गया है। उनका कान्ता-त्याग उपलक्षण रूप होने के कारण यहाँ पर अवसर अलङ्कार हुआ है।
इस एक मात्र प्रयोग के द्वारा आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपनी अलङ्कार
१. जैनमेघदूतम्, १/३ । २. काव्यालङ्कारसुत्र, ७/१०३ । ३. जैनमेघदूतम्, १/१।
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