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- भूमिका : १७३ ' जाति : जाति अलङ्कार का लक्षण स्पष्ट करते हुए रुद्रट ने काव्यालङ्कार में इसका लक्षण इस प्रकार दिया है कि जिस पदार्थ का संस्थान, अवस्थान ओर क्रिया आदि जिस स्वरूप का होता है, लोक में रूढ़ उसका उसी स्वरूप में कथन जाति अलङ्कार होता है
संस्थानावस्थानक्रियादि यद्यस्य यादृशं भवति ।
लोके चिरप्रसिद्धं तत्कथनमनन्यथा जातिः ॥ अर्थात् जिस पदार्थ का जो स्वरूप होता है, उसका उसी रूप में कथन जाति अलङ्कार कहलाता है।
आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपने जैनमेघदूतम् काव्य में जाति अलङ्कार के अनेक प्रयोग प्रस्तुत किये हैं, जो अत्यन्त भावपूर्ण हैं । यथा
कश्चित्कान्तामविषयसुखानीच्छुरत्यन्तधीमानेनोवृत्ति त्रिभुवनगुरुः स्वैरमुज्झाञ्चकार । दानं दत्त्वा सुरतरुरिवात्युच्चधामारुरुक्षुः
पुण्यं पृथ्वोधरवरमथो रैवतं स्वीचकार । इस श्लोक में ही जाति अलङ्कार का कितना सुन्दर प्रयोग प्रस्तुत किया गया है, यहाँ पर 'पुण्यं पृथ्वीधरवरं' अर्थात् पवित्र एवं पर्वतश्रेष्ठ 'रैवत' यह कहने से जाति अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है। ... इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् के किञ्चित् अन्य स्थलों पर भी जाति अलङ्कार के कुछ प्रयोग प्रस्तुत किये हैं, जो उपर्युक्त प्रयोग की भाँति ही स्पष्ट है।
............। ____ भाव : भाव अलंकार का लक्षण स्पष्ट करते हुए रुद्रट ने काव्यालङ्कार में कहा है कि जिसका विकार जिस अनियत कारण से उत्पन्न होता हुआ उसके कार्य-कारण-सम्बन्ध रूप अभिप्राय का तथा उस कार्य-कारणसम्बन्ध रूप प्रतिबन्ध का बोध कराये, वह भाव अलङ्कार होता है
यस्य विकारः प्रभवन्नप्रतिबद्धेन हेतुना येन। गमयति तदभिप्रायं तत्प्रतिबन्धं च भावोऽसौ ॥
१. काव्यालङ्कारसूत्र, ७/३० । २. जैनमेघदूतम्, १/१ । ३. वही, २/२५,२६,२९,३०,३१,३८,३९,४५,४७,४८; ३/२१,२९,४४,४९,
५२; ४/२३,३७ । ४. काव्यालङ्कारसूत्र, ७/३८ ।
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