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१७२ : जैन मेघदूतम्
आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपने काव्य में विशेष अलङ्कार के मात्र दो प्रयोग किये हैं। उनमें से विशेष अलङ्कार का एक प्रयोग निम्न रूप में है--
ताश्चानङ्गं पशुपतिदुतं गूढमार्गे शयानं सख्यू राज्ये जहति पुरुहे चास्त्रजातेऽपि जाते। तत्राजय्ये . त्रिभुवनपतावप्रभूष्णु दृशैवो
पाजेकृत्वा लघु ववलिरे जिष्णुपत्न्योऽभि नेमिम् ॥ .. इस श्लोक में श्रीनेमि को चारों ओर से घेर कर श्रीकृष्ण की उन स्त्रियों ने जीतने में असमर्थ काम को नेत्रों से परास्त भी कर दिया, अतः यहाँ पर विशेष अलङ्कार है। ___ इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में विशेष अलङ्कार का एक अन्य प्रयोग भी प्रस्तुत किया है ।
हेतु : हेतु अलङ्कार का लक्षण स्पष्ट करते हुए साहित्यदर्पणकार ने कहा है कि जहाँ हेतुमान के साथ हेतु का अभेदरूप से वर्णन किया गया हो, वहाँ हेतु अलङ्कार होता है
. अभेदेनाभिधा हेतुर्हेतोर्हेतुमता सह । - आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपने काव्य में हेतु अलङ्कार का बहुत प्रयोग किया है। उनके द्वारा प्रयुक्त हेतु अलङ्कार के ये प्रयोग अत्यन्त स्पष्ट भाव से युक्त हैं । यथा- ..
कश्चित्कान्तामविषयसुखानीच्छुरत्यन्तधीमानेनोवृत्तिं त्रिभुवनगुरुः स्वरमुज्झाञ्चकार। दानं दत्त्वा सुरतरुरिवात्युच्चधामारुरुक्षुः .
पुण्यं पृथ्वीधरवरमथो रैवतं स्वीचकार ॥ - इस श्लोक में कान्तात्याग में विषय सुखेच्छा आदि हेतु था, अतः यहाँ पर हेतु अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है। इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में हेतु अलङ्कार के कुछ अन्य प्रयोग" भी प्रस्तुत किये हैं, जो उपयुक्त प्रयोग की भाँति ही अत्यन्त प्रभावपूर्ण हैं।
१. जैनमेघदूतम्, २१८। २. वही, ३/२३ । ३. साहित्यदर्पण, १०/६३ । ४. जैनमेघदूतम्, १/१ ।। ५. वही, १/२; २/४६; ३/२५, ३७, ४८; ४/८, २८, ३१ ।
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