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भूमिका : १७१ आचार्य मेरुतुङ्ग ने प्रत्यनीक अलङ्कार का यही एक मात्र प्रयोग देकर अपनी अलङ्कार-प्रतिभा का पूर्ण परिचय दे दिया है।
सामान्य : आचार्य मम्मट ने सामान्य अलङ्कार का लक्षण इस प्रकार दिया है कि प्रस्तुत अर्थात् वर्णनीय वस्तु के साथ अन्य अप्रस्तुत वस्तु के सम्बन्ध होने के कारण उन दोनों के गुणों में समानता प्रतिपादित करने की इच्छा से जो अभेद का वर्णन किया जाता है, वह सामान्य अलङ्कार कहलाता है
प्रस्तुतस्य यदन्येन गुणसाम्यविवक्षया।
ऐकात्म्यं बध्यते योगात् तत्सामान्यमिति स्मृतम् ॥ आचार्य मेरुतुङ्ग ने सामान्य अलङ्कार का केवल एक ही स्थल पर प्रयोग किया है, जो इस प्रकार से प्रस्तुत है
दुग्धं स्निग्धं समयतु सिता रोहिणी पावणेन्दु हैमी मुद्रा मणिमुरुणि कल्पवल्ली सुमेरुम् । दुग्धाम्भोधि त्रिदशतटिनोत्यादिभिः सामवाक्यैः
श्रीनेभ्यर्थ सगिति च स मद्वीजिनं मां ययाचे ॥ इस श्लोक में सामवाक्य अर्थात् प्रस्तुत को अप्रस्तुत अर्थात् शर्करास्निग्ध दुग्ध, रोहिणीपार्वणचन्द्र आदि के साथ अभिन्न रूप से वर्णित किये जाने के कारण, यहाँ पर सामान्य अलङ्कार है।
इस प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में सामान्य अलङ्कार का मात्र एक स्थल पर ही प्रयोग किया है।
विशेष : आचार्य मम्मट ने विशेष अलङ्कार का लक्षण स्पष्ट करते हुए कहा है कि प्रसिद्ध आधार के बिना आधेय की स्थिति होने से (प्रथम प्रकार का), एक पदार्थ को एक ही रूप से अनेक जगह पर एक साथ उपस्थिति होने से (द्वितीय प्रकार का) और अन्य कार्य को करते हुए उसी प्रकार से किसी अशक्य अन्य वस्तु का उत्पादन होने से (तृतीय प्रकार का), विशेष अलङ्कार होता है
विना प्रसिद्धमाघारमाधेयस्य व्यवस्थितिः । एकात्मा युगपदवृत्तिरेकस्यानेकगोचरा॥ अन्यत् प्रकुर्वतः कार्यमशक्यस्यान्यवस्तुनः।
तथैव कारणं चेति विशेषस्त्रिविधः स्मृतः ॥ १. काव्यप्रकाश, १०/१३४ । २. जैनमेघदूतम्, ३/२३ । ३. काव्यप्रकाश, १०/१३५, १३६ ।
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