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________________ १७० : जैनमेघदूतम् मण्डल” युवकों के हृदय में राग की पुष्टि करता है, अतः यहाँ पर समाधि अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है । इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में समाधि अलङ्कार का एक अन्य प्रयोग भी किया है । प्रत्यनीक : आचार्य सम्मट ने प्रत्यनीक अलङ्कार का लक्षण इस प्रकार दिया है कि अपने प्रतिपक्षी का अपकार कर सकने में असमर्थ के द्वारा उस प्रतिपक्षी की किसी सम्बन्धित वस्तु का जो उसकी स्तुति में पर्यवसित होने वाला तिरस्कार करना है, वह प्रत्यनीक अलङ्कार है प्रतिपक्षमशक्तेन प्रतिकतु तिरस्क्रिया । या तदीयस्य तत्स्तुत्यै प्रत्यनीकं तदुच्यते ॥ अर्थात् अपना तिरस्कार करने वाले प्रतिपक्षी का साक्षात् अपकार करने में असमर्थ किसी व्यक्ति के द्वारा उसी प्रतिपक्षी के उत्कर्ष - सम्पादनार्थ जो उसके आश्रित का तिरस्कार करना है, वह अनीक अर्थात् सेना के प्रतिनिधि के तुल्य होने से - प्रत्यनीक अलङ्कार से अभिहित किया जाता है । जैसे सेना पर आक्रमण करने के अवसर पर किसी की मूर्खता के कारण उसके प्रतिनिधिभूत किसी दूसरे पर आक्रमण कर दिया जाता है, वैसे ही यहाँ पर प्रतिपक्षी को विजय करने के स्थान पर उसके सम्बन्धी दूसरे पर विजय किया जाता है । आचार्य मेरुतुङ्ग ने प्रत्यनीक अलङ्कार का प्रयोग केवल एक ही स्थल पर किया है । जो निम्न प्रकार है स्पर्धध्वे रे ! नयननलिने निर्मले देवरस्य स्मित्वेत्येवं शिततरतिरः काक्षकाण्डान् किरन्ती । कन्दोत्खातान् धवलकमलान् कामपाशप्रकाशान् नाशाशास्यानुरसि सरसाऽहारयत् स्वामिनोऽन्या ॥ इस श्लोक में श्रीकृष्ण की एक रानी अपने प्रतिपक्षी श्रीनेमि का अपकार करने में असमर्थ होकर श्रीनेमि के सम्बन्धी श्वेत कमलों का ही तिरस्कार कर रही है, अतः यहाँ पर प्रत्यनीक अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है। १. जैनमेघदूतम्, ४/४२ । २ काव्यप्रकाश, १० / २१९ । ३. जैनमेघदूतम्, २/४७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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