SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - भूमिका : १६९ एवं हृदयावर्जक हैं, इसका अनुमान इनके निम्न श्लोक से ही कर सकते हैं । यथा कच्चिद्धाराधर ! तव शिवं वार्तशाली च देहः सेवेते त्वां स्तनिततडितौ राजहंसौ सरोवत । अव्याबाधा स्फुरति करुणा वृष्टिसर्गे निसर्गा न्मार्गे दैव्ये गतिरिव रवः स्वागतं वर्तते ते॥ इस श्लोक में "अव्याबाधा' आदि से अर्थात् वृष्टि-विधान में अन्तराल न होने से पर्याय कथन होने के कारण यहाँ पर पर्यायोक्त अलङ्कार स्पष्ट होता है। इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में पर्यायोक्त अलङ्कार के कुछ अन्य प्रयोग भी प्रस्तुत किये हैं, जो उपर्युक्त अलङ्कार-प्रयोग के समान ही अत्यन्त श्रेष्ठ हैं। समाधि : आचार्य मम्मट ने समाधि अलङ्कार का लक्षण इस प्रकार दिया है कि जहाँ अन्य कारण के आ जाने से कार्य सुकर हो जाता है, वहाँ समाधि अलङ्कार होता है- समाधिः सुकर कार्य कारणान्तरयोगतः ।। अर्थात् अन्य कारण की सहायता प्राप्त हो जाने से जहाँ कर्ता प्रारम्भ किये हुए कार्य को सरलता से सम्पादित कर लेता है, वहाँ समाधि अलङ्कार होता है। आचार्य मेरुतुङ्ग ने समाधि अलङ्कार का मात्र दो स्थलों पर प्रयोग किया है । उनमें से एक प्रयोग निम्नवत् है मन्दं मन्दं तपति तपनस्यातपे यत्प्रतापः प्रापत् पोषं विषमविशिखस्येति चित्रीयते न । चित्रं त्वेतद्भजदमलतां मण्डलं शीतरश्मे र्यनामन्त.करणशरणं रागमापूपुषद्यत् ॥ इस श्लोक में "स्वयं निर्मलता धारण" की सहायता से कर्ता "चन्द्र १. जैनमेघदूतम्, १/१० । २. वही, १/११,२४,२६,३३,३६,४४; २/४,१६,१८,२५,३६,३७; ३/२,१०, ____३१,४७; ४/३१,३२,३५,३६ । ३. काव्यप्रकाश, १०/१२५ । ४. जैनमेघदूतम्, २/११ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy