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________________ १६८ : जैनमेघदूतम् - व्याजस्तुति : आचार्य मम्मट ने व्याजस्तुति अलङ्कार का लक्षण देते हए लिखा है कि प्रारम्भ में निन्दा अथवा स्तुति मालूम होती हो, परन्तु उससे भिन्न अर्थात् आपाततः दिखने वाली निन्दा का स्तुति में अथवा स्तुति का निन्दा में पर्यवसान होने पर व्याजस्तुति अलङ्कार होता है व्याजस्तुतिमुखे निन्दास्तुतिर्वा रूढिरन्यथा'। ___व्याजस्तुति अलङ्कार के कुछ प्रयोग ही जैनमेघदूतम् में उपलब्ध होते हैं, जो कवि की अलङ्कार-निरूपण-कला के परिचायक हैं । यह इनके निम्न प्रयोग को देखकर कहा जा सकता है । यथा कारुण्यौकश्चरिषु विघृणो बन्धुतायां सुतृष्णक मुक्तौ मूत्तिद्विषि कुलकनीस्वीकृतौ वीततृष्णः । कौलोनाप्तेदंरविरहितः संसृतेः कान्दिशीकः प्रारब्धार्थास्त्यजसि भजसेऽप्रस्तुतांस्तन्नमस्ते ॥ ___ इस श्लोक में श्रीनेमि की स्तुति की गयी है, परन्तु आपाततः इस स्तुति का पर्यवसान निन्दा में हो रहा है, अतः यहाँ पर व्याजस्तुति अलङ्कार है। . इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में व्याजस्तुति अलङ्कार के किञ्चित् अन्य प्रयोग भी प्रस्तुत किये हैं, जो उपर्युक्त प्रयोग के ही सदृश अत्यन्त भावपूर्ण हैं। __ पर्यायोक्त : आचार्य मम्मट ने पर्यायोक्त अलङ्कार का लक्षण स्पष्ट करते हए कहा है कि वाच्य-वाचक भाव के बिना जो वाच्यार्थ का कथन किया जाता है, वह पर्यायोक्त अलङ्कार कहलाता है पर्यायोक्तं विना वाच्यवाचकत्वेन यद्वचः। अर्थात् वाच्य-वाचक भाव से भिन्न व्यंजना रूप बोधन-व्यापार के द्वारा वाच्यार्थ का प्रतिपादन करना-वह पर्याय से अर्थात् प्रकारान्तर से कथन करने के कारण-पर्यायोक्त अलङ्कार होता है। ___ आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में पर्यायोक्त अलङ्कार के अनेक प्रयोग प्रस्तुत किये हैं । पर्यायोक्त अलङ्कार के ये प्रयोग अत्यन्त भावस्पष्ट १. काव्यप्रकाश, १०/११२ । २. जैनमेघदूतम्, ३/४७ । ३. वही, ४/२५,२६,३५ । ४. काव्यप्रकाश, १०/११५ । । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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