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भूमिका : १६७
यहाँ अलङ्कार रूप कारण के अभाव में भी स्वभाव - सुन्दरता रूप कार्य की उत्पत्ति होने के कारण विभावना अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है ।
इसी प्रकार विभावना अलङ्कार का एक अन्य प्रयोग आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् के प्रथम सर्ग में प्रस्तुत किया है ।
विरोध : आचार्य मम्मट ने विरोध अलङ्कार का लक्षण स्पष्ट करते हुए कहा है कि वास्तव में विरोध न होने पर भी विरुद्ध रूप से वर्णन करना विरोध अलङ्कार होता है
विरोधः सोऽविरोधेऽपि विरुद्धत्वेन यद्वचः ।
अर्थात् जहाँ वास्तविक विरोध न होने पर भी किन्हीं दो वस्तुओं का ऐसा कथन किया जाय, जिससे विरोध सा प्रतीत होने लगे, तो वहाँ विरोध अलङ्कार होता है । इसे विरोधाभास अलङ्कार भी कहते हैं । इसके अन्त में विरोध का परिहार हो जाता है ।
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आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपने जैनमेघदूतम् में विरोध अलङ्कार के जो प्रयोग प्रस्तुत किये हैं, वे अत्यन्त स्पष्ट भाव से युक्त हैं । विरोध अलङ्कार के प्रयोग में आचार्य मेरुतुङ्ग पटु प्रतीत होते हैं, क्योंकि इन्होंने जैनमेघदूतम् में विरोध अलङ्कार के कोई एक-दो प्रयोग नहीं, लगभग चौदह प्रयोग किये हैं । उनमें से एक प्रयोग प्रस्तुत हैप्रस्तुत जन्मे यस्य त्रिजगति तदा ध्वान्तराशेर्विनाशः प्रोद्योतश्चाभवद तितरां भास्वतीवाभ्युदीते । अन्तर्दुः खोत्करमुरु सुखं नारका अप्यवापुः पारावारे विरससलिले स्वातिवारीव शुक्ला: ॥
इस श्लोक में " दुःख- समूहों के बीच घिरे हुए नरकवासियों ने जन्मग्रहण भर से ही सुख प्राप्त किया" इस कथन में विरोध सा प्रतीत होने के कारण यहाँ पर विरोध अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है ।
इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने विरोध अलङ्कार के जो अन्य प्रयोग * जैनमेघदूतम् में प्रस्तुत किये हैं, वे भी उपर्युक्त प्रयोग की भाँति ही अत्यन्त श्रेष्ठ हैं ।
१. जैन मेघदूतम्, १/२१ ।
२. काव्यप्रकाश, १० / २१० ।
३. जैनमेघदूतम्, १ / १७ ।
४. वही, १ / ७, ३९; २ / ३५, ४१ ३ / ४, १२, १८, ४०, ४६,४७, ४/१७,१९,२७ ।
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