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१६६ : जैनमेघदूतम्
आक्षेप अलङ्कार का प्रयोग आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपने जैनमेघदूतम् में मात्र तीन स्थलों पर किया है। आक्षेप अलङ्कार के किञ्चित् प्रयोग हो उपस्थित कर कवि ने इस अलङ्कार के प्रति अपनी पूर्ण सिद्धहस्तता का परिचय दिया है । इसका अनुमान आक्षेप अलङ्कार के इनके एक प्रयोग से कर सकते हैं । यथा
मन्दं मन्दं तपति तपनस्यातपे यत्प्रतापः प्रापत् पोषं विषमविशिखस्येति चित्रीयते न । चित्रं त्वेतद्भजदमलतां मण्डलं शीतरश्मेर्यनामन्तःकरणशरणं रामापुषद्यत् ॥
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यहाँ पर काम के प्रताप की पुष्टि प्राप्त करने वाली बात कह देने के के बाद 'कोई विचित्र बात नहीं" यह कहकर उसका निषेध किये जाने के कारण उक्त विषयक आक्षेप अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है ।
इसी प्रकार जैनमेघदूतम् के मात्र दो अन्य स्थलों पर आचार्य मेरुतुङ्ग आक्षेप अलङ्कार के प्रयोग' प्रस्तुत किये हैं ।
विभावना : आचार्य मम्मट ने विभावना अलङ्कार का लक्षण स्पष्ट करते हुए कहा है कि कारण का निषेध होने पर भी फल की उत्पत्ति होने पर विभावना अलङ्कार होता है
क्रियायाः प्रतिषेधेऽपि फलव्यक्तिर्विभावना' ।
अर्थात् कारण के न होने पर भी जहाँ कार्य की उत्पत्ति का वर्णन हो, वहाँ विभावना अलङ्कार होता है । इस अलङ्कार में कारण के बिना भी कार्य का होना प्रतिपादित होता है ।
आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में विभावना अलङ्कार के मात्र दो प्रयोग ही प्रस्तुत किये हैं, जो उनकी अलङ्कार -निपुणता को प्रकाशित करते हैं। जैनमेघदूतम् में प्रस्तुत विभावना अलङ्कार के ये मात्र दोनों प्रयोग अपनी भावस्पष्टता के साथ ही साथ अति सुन्दर भी हो गये हैं । यथाकामं मध्ये भुवनमनलङ्कारकान्ता अनुत्वन्मन्त्रस्येव स्मरति च तवागोपगोपं जनोऽयम् । न्यासीचक्र भवति निखिला भूतसृष्टिर्विधात्रा तत्त्वां भाषे किमपि करुणाकेलिपात्रावधेहि ॥
१. जैन मेघदूतम्, २ / ११
२. वही, ३ / २४, ४/३९ । ३. काव्यप्रकाश, १०/१०७ । ४. जैनमेघदूतम्, १/१३ ।
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