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________________ भूमिका : ३६६ इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने तृतीय सर्ग के एक अन्य श्लोक' में भी अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार का एक सुन्दर प्रयोग प्रस्तुत किया है। दीपक : आचार्य मम्मट ने दीपक अलङ्कार का लक्षण इस प्रकार दिया है कि प्रकृत तथा अप्रकृत के धर्मों का एक ही बार जहाँ ग्रहण किया जाय, वहाँ क्रिया-दीपक और जहाँ अनेक क्रियाओं के साथ एक कारक का सम्बन्ध हो, तो वहाँ कारक-दीपक अलङ्कार होता है सकृवृत्तिस्तु धर्मस्य प्रकृताप्रकृतात्मनाम् । सैव क्रियासु बह्वीषु कारकस्येति दीपकम् ॥ दीपक अलङ्कार के किञ्चित् प्रयोग ही जैनमेघदूतम् में मिलते हैं। आचार्य मेरुतुङ्ग ने दीपक अलङ्कार के जो प्रयोग जैनमेघदूतम् में प्रस्तुत किये हैं, उनमें से एक इस प्रकार है-- कश्चित्कान्तामविषयसुखानीच्छुरत्यन्तधीमान् एनोवृत्तिं त्रिभुवनगुरुः स्वैरमुज्झाञ्चकार । दानं दत्त्वा सुरतरुरिवात्युच्चधामारुरुक्षुः पुण्यं पृथ्वीधरवरमथो रैवतं स्वीचकार ॥ ___यहाँ पर कान्ता का त्यागकर रैवत को स्वीकार करने अर्थात् प्रकृत और अप्रकृत इन दो क्रियाओं के इस सम्बन्ध के कारण दीपक अलङ्कार - इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में अन्य अनेक स्थलों पर भी दीपक अलङ्कार के किञ्चित् प्रयोग किये हैं। दीपक अलङ्कार के प्रयोग में आचार्य मेरुतुङ्ग श्रेष्ठ कहे जा सकते हैं। आक्षेप : आचार्य मम्मट ने आक्षेप अलङ्कार का लक्षण स्पष्ट करते हुए कहा है कि जो बात कहना चाहते हैं, उसमें विशेष उत्कर्ष प्रकट करने के लिए जो उसका निषेध किया जाय, तो वह वक्ष्यमाण-विषयक और उक्त-विषयक दो प्रकार का आक्षेप अलङ्कार होता है निषेधो वक्तुमिष्टस्य यो विशेषाभिधित्सया। वक्ष्यमाणोक्तविषयः स आक्षेपो द्विधा मत.॥ १. जैनमेघदूतम्, ३/२५ । २. काव्यप्रकाश, १०/१०३ । ३. जैनमेघदूतम्, १/१ । ४. वही, १/११, २४, ३४, ३६, ३७, ३८; ३/३०; ४/१८, २९, ३५, ३६ । ५. काव्यप्रकाश, १०/१०६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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