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१६४ : जैनमेघदूतम्
आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपहनुति अलङ्कार के कई प्रयोग अपने काव्य में प्रस्तुत किये हैं । अपहनुति अलङ्कार के ये प्रयोग बहुत ही भावस्पष्टता के साथ प्रस्तुत किये गये हैं । यथा
व्योमव्याजावहनि कमन पट्टिकां सम्प्रमृज्य स्पूजंल्लक्ष्मालक शशिखटीपात्रमादाय रात्रौ । रुग्लेखन्या गणयति गुणान् यस्य नक्षत्रलक्षादङ्कांस्तन्वन्न खलु भवतेऽद्यापि तेषामियत्ताम् ' ॥ इस श्लोक में आकाशरूपी पट्टिका से तारों के बहाने गुणों को अंकों द्वारा गिनने के कारण यहाँ पर अपहनुति अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है । इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में अपहनुति अलङ्कार के अन्य अनेक सुन्दरतम प्रयोग प्रस्तुत किये हैं ।
अप्रस्तुतप्रशंसा : आचार्य मम्मट ने अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार का लक्षण इस प्रकार दिया है कि अप्रस्तुत पदार्थ का ऐसा अभिधान या प्रशंसा, जिससे प्रस्तुत अर्थ की प्रतीति हो जाये, अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार कहलाता है
अप्रस्तुतप्रशंसा या सा सैव प्रस्तुताश्रया ।
इस अलङ्कार में अप्रस्तुत वाच्य होता है और इससे जिस प्रस्तुत की प्रतीति होती है, वह व्यङ्गय होती है ।
अप्रस्तुतप्रशंसा का प्रयोग आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में दो स्थानों पर किया है । यथा
बाहौ धृत्वा प्रियमधुमुखा अप्यभाषन्त बन्धो ! सन्तः प्रायः परहितकृते नाद्रियन्ते स्वमर्थम् । प्रष्ठस्तेषामपि बत ! कुतोऽतद्विलोपेऽपि दत्सेSनन्वग्भूय स्वजनमनसामेवमाभोलकोला: ४ ॥
यहाँ पर पाणिग्रहण रूप अप्रस्तुत की तृतीय और चतुर्थ चरण से ऐसी प्रशंसा की गई है, जिससे कि प्रस्तुत अर्थ पाणिग्रहण की प्रतीति हो जा रही है | अतः यहाँ पर अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है ।
१. जैनमेघदूतम्, १/२६ ।
२. बही, १/३७, २/२ २१, ३/७, ३२, ३३, ४९ ।
३. काव्यप्रकाश, १०/९८ ।
४. जैनमेघदूतम् ३/१८ ।
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