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भूमिका : १६३ होने के कारण स्मरण अलङ्कार है। स्मरण अलङ्कार का उपयुक्त यह एक मात्र प्रयोग जैनमेघदूतम् में निरूपित किया गया है।
विषम : आचार्य मम्मट ने विषम अलङ्कार का लक्षण इस प्रकार दिया है कि कहीं अत्यन्त वैधर्म्य के कारण सम्बन्ध बनता न प्रतीत हो, जहाँ कर्ता को क्रिया के फल की प्राप्ति न हो तथा जहाँ कार्य के गुण और क्रिया से जो कारण के गुण तथा क्रिया का क्रमशः वैपरीत्य प्रकट हो, तो वहाँ विषम अलङ्कार होता है
क्वचिद्यदतिवैधन्नि श्लेषो घटनामियात् । कतु': क्रियाफलावाप्ति वानर्थश्च यद्भवेत् ॥ गुणक्रियाभ्यां कार्यस्य कारणस्य गुणक्रिये ।
क्रमेण च विरुद्धे यत् स एष विषमो मतः ॥ विषम अलङ्कार के प्रयोग के प्रति आचार्य मेरुतुङ्ग ने पर्याप्त उत्सुकता प्रदर्शित को है। उन्होंने जैनमेघदूतम् में विषम अलङ्कार के अनेक प्रयोग प्रस्तुत किये हैं, उनमें से एक प्रयोग यथावत् है
मन्दं मन्दं तपति तपनस्यातपे यत्प्रतापः प्रापत् पोषं विषमविशिखस्येति चित्रीयते न । चित्रं त्वेतद्भजदमलतां मण्डलं शीतरश्मे
नामन्तःकरणशरणं रागमापूपुषखत् ॥ इस श्लोक में चन्द्रमण्डल और राग दो विरूप पदार्थों का संघटन होने के कारण यहाँ पर विषम अलङ्कार है। इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् के अन्य अनेक स्थलों पर विषम अलङ्कार के अनेक प्रयोग प्रस्तुत किये हैं। ___ अपह नुति : आचार्य मम्मट ने अपह नुति अलङ्कार का लक्षण इस प्रकार दिया है कि प्रकृत अर्थात् उपमेय का निषेध करके जहाँ अन्य अर्थात् उपमान की सिद्धि की जाती है, वहाँ अपह नुति अलङ्कार होता है
प्रकृतं यन्निषिध्यान्यत्साध्यते सा तु अपह नुतिः ।
१. काव्यप्रकाश, १०/१२६, १२७ । २. जैनमेघदूतम्, २/११ । ३. वही, २/३०; ३/१२, १९, ४०, ४१, ५३, ५४; ४/२५, ३२, ३३,
३७, ३८ । ४. काव्यप्रकाश, १०/१६ ।
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