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१६२ : जैनमेघदूतम्
तत्सौभाग्यं तदतुलतरस्तज्जनानन्दि रूपं तल्लावण्यं तदपरिमितं ज्ञानमन्यानवापम । सा मैत्री सा तिरविचला ताः कृपाक्षान्तिकान्ति
प्रज्ञावाचः परमपि शुभं लभ्यमत्रव लभ्यम् ॥ यहाँ पर “परमपि" अर्थात् अन्य भी और सौभाग्य, बल आदि का एक समान कथन होने से सम अलङ्कार स्पष्ट होता है। उपर्युक्त प्रयोग के अतिरिक्त जैनमेघदूतम् में सम अलङ्कार के पाँच अन्य प्रयोग भी इसी भाँति अत्यन्त मनोहर हैं।
स्मरण : आचार्य मम्मट ने स्मरण अलङ्कार का लक्षण इस प्रकार दिया है कि उस पहले देखी हुई वस्तु के समान दूसरी वस्तु को देखकर अथवा सुनकर अर्थात् पूर्वदृष्ट वस्तु के सदृश वस्तु का किसी प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर पूर्व अनुभव के अनुसार वस्तु की स्मृति होना, स्मरण अलङ्कार कहलाता है
___यथानुभवमर्थस्य दृष्टे तत्सदृशे स्मृतिः । स्मरणम् ।' अर्थात् जो पदार्थ किसी आकार विशेष से निश्चित है अर्थात् कभी उस रूप से अनुभव किया गया हो, दूसरे समय में संस्कारोबोधक समान वस्तु के देखने पर उसका जो उसी रूप में स्मरण होता है, वह स्मरण अलङ्कार है।
स्मरण अलङ्कार के प्रयोग में आचार्य मेरुतुङ्ग ने विशेष रुचि नहीं ली है। उन्होंने जैनमेघदूतम् में स्मरण अलङ्कार का मात्र एक प्रयोग ही निदर्शित किया है, जो इस प्रकार है
सौवर्णेऽथ न्यविशत विभुर्विष्टरे रिष्टरेखालेखालोक्ये सिनिवसनः संप्रयुक्ते तयैव । नन्द्यावर्तावलिवलयिनि स्वर्णशैले निषण्णं
त्वामेव स्म स्मरयति तथा सबलाकाकलापम् ॥ यहाँ पर बलाकायुक्त तुम्हारे (मेघ के) सदृश श्वेतवस्त्रधारी भगवान् के अनुभव से स्वर्ण शैलस्थित श्वेतवस्त्रधारी तुम्हारी (मेघ की) स्मृति
१. जैनमेघदूतम्, १/२८ । २. वही, २/३०; ३/५०,५३; ४/२४,३० । ३. काव्यप्रकाश, १०/१३२ । ४. जैनमेघदूतम्, ३/५ ।
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