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भूमिका : १६१ जैनमेघदूतम् में किञ्चित् अन्य भो अनेक अनुमान अलङ्कार के प्रयोग' प्रस्तुत किये हैं।
परिकर : विशेष्य का साभिप्राय विशेषणों के द्वारा कथन किया जाना परिकर अलङ्कार है । इसी तथ्य को काव्यप्रकाशकार ने व्यक्त करते हुए कहा है कि अभिप्राययुक्त अर्थात् साकूत विशेषणों के द्वारा जो कथन किया जाता है, वह परिकर अलङ्कार होता है
विशेषणैर्यत्साकूतैरुक्तिः परिकरस्तु सः । __ परिकर अलङ्कार के निरूपण के प्रति आचार्य मेरुतुङ्ग अत्यधिक सजग प्रतीत होते हैं, क्योंकि उन्होंने जैनमेघदूतम् में परिकर अलङ्कार के अनेक प्रयोग नियोजित किये हैं। उनके ये परिकर-प्रयोग पर्याप्त भावस्पष्टता एवं अर्थबोधकता से भी ओत-प्रोत हैं । यथा
कृष्णो देशप्रभुरभिनवश्चाम्बुदः कालिमानं न्यध्यासाते तदवगमयाम्येनसैवाजितेन। तत्रैकोऽस्मत्पतिविरचिताभ्रेषपेषानिषेधा
दन्योऽस्माकं गहनगहने विप्रयोगेऽग्निसर्गात् ॥ यहाँ देशप्रभु और नवअम्बुद ये साभिप्राययुक्त श्रीनेमि के विशेषण हैं । अतः इन विशेषणों द्वारा श्रीनेमि का कथन होने के कारण यहाँ परिकर अलङ्कार है । परिकर अलङ्कार के इस प्रयोग के अतिरिक्त आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में अन्य भी अनेक परिकर अलङ्कार के प्रयोग किये हैं, जो उपर्युक्त प्रयोग की भाँति ही अत्यन्त रमणीय हैं। __ सम : काव्यप्रकाशकार ने सम अलङ्कार का लक्षण स्पष्ट करते हुए कहा है कि यदि कहीं दो विशेष वस्तुओं का योग्य रूप से सम्बन्ध वर्णित हो, तो वहाँ सम अलङ्कार होता है
___समं योग्यतया योगो यदि सम्भावितः क्वचित् ।
आचार्य मेरुतुङ्ग ने सम अलङ्कार के निरूपण में अत्यधिक रुचि नहीं ली है। उन्होंने अपने काव्य में इस अलङ्कार के मात्र छः प्रयोग ही प्रस्तुत किये हैं। उनमें से एक प्रयोग निम्न रूप में है१. जैनमेघदूतम्, १/२७,४६; ३/१, ८; ४/३९ । २. काव्यप्रकाश, १०/११८ । ३. जैनमेघदूतम्, १/५ । ४. वही, १/३,६,२५,३१,४७,५०; २/७,१७,१३,१५,१९,२३,३४,३५,३८,
४०,४६; ३/२७,४४, ४/४,१३,१४ । ५. काव्यप्रकाश, १०/१२५ ।
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