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१६० : जैनमेघदूतम् के मात्र तीन ही प्रयोग निरूपित किये हैं। परन्तु पर्याय अलङ्कार के ये तीन प्रयोग ही भाव एवं अर्थबोधकता में अत्यन्त श्रेष्ठ हैं । यथा
जन्मे यस्य त्रिजगति तदा ध्वान्तराशेविनाशः प्रोद्योतश्चाभवदतितरां भास्वतीवाभ्युदीते। अन्तर्दुःखोत्करमुरु सुखं नारका अप्यवापुः
पारावारे विरससलिले स्वातिवारीव शुक्लाः ॥ इस श्लोक में भगवान् के जन्मग्रहण करने पर प्रकाश प्रसरित हुआ और नरक-वासियों ने सुख पाया आदि क्रियाएँ एक क्रम से होने से यहाँ पर पर्याय अलङ्कार स्पष्ट है। इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में पर्याय अलङ्कार के मात्र अन्य दो प्रयोग ही समायोजित किये हैं, जिनमें भावों की स्पष्टता एवं मनोहरता विद्यमान है ।
अनुमान-आचार्य मम्मट ने अनुमान अलङ्कार का लक्षण निरूपित करते हुए कहा है कि साध्य-साधन का कथन अनुमान अलङ्कार होता है
अनुमानं तदुक्तं यत् साध्यसाधनयोवचः । यहाँ पर साध्य-साधन शब्दों के ग्रहण के द्वारा अनुमानोपयोगी समस्त शब्दों का ग्रहण समझना चाहिए ।
आचार्य मेरुतुङ्ग ने अनुमान अलङ्कार के निरूपण में अत्यन्त रुचि प्रदर्शित की है। उन्होंने जैनमेघदूतम् में अनुमान अलङ्कार के अनेक प्रयोग प्रस्तुत किये हैं, जो अपने पूर्ण लक्षणों को अभिव्यक्त करते हुए उक्त भावों की रमणीयता में वृद्धि करते हैं । यथा
ध्यात्वैवं सा नवघनघृता भूरिवोष्मायमाणा युक्तायुक्तं समदमंदनावेशतोऽविन्दमाना। अस्रासारं पुरु विसृजती वारि कादम्बिनीव
दीना दुःखादथ दकमुचं मुग्धवाचेत्युवाच ॥ यहाँ पर 'ध्यात्वैवं' से साध्य अर्थात् युक्तायुक्त विचारण और साधन अर्थात् मेघ के प्रति बोलने का कथन होने से अनुमान अलङ्कार सिद्ध होता है । अनुमान अलङ्कार के इस प्रयोग के अतिरिक्त आचार्य मेरुतुङ्ग ने १. जैनमंघदूतम्, १/१७ । २. वही, १/१३, २५ । ३. काव्यप्रकाश, १०/११७ । ४. जैनमेघदूतम्, १।९। .
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