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भूमिका : १५९ समुच्चय-आचार्य मम्मट ने समुच्चय अलङ्कार का निरूपण करते हुए इसका लक्षण इस प्रकार दिया है कि उस कार्य की सिद्धि का एक हेतु विद्यमान रहने पर भी जहाँ अन्य अर्थात् हेतु भी उसका साधक हो जाये, वहाँ समुच्चय अलङ्कार होता है
तसिद्धिहेतावेकस्मिन् यत्रान्यत् तत्करं भवेत् । समुच्चयोऽसौ ॥' अर्थात् उस प्रस्तुत कार्य के एक साधक हेतु के होने पर भी जहाँ अन्य साधक भी हो जाते हैं, वहाँ समुच्चय अलङ्कार होता है अथवा दो गुणों या दो क्रियाओं अथवा एक गुण और क्रिया का एक साथ वर्णन भी समुच्चय अलङ्कार कहलाता है। ___ समुच्चय अलङ्कार के प्रयोग में आचार्य मेरुतुङ्ग ने अत्यन्त निपुणता प्रदर्शित की है। उन्होंने जैनमेघदूतम् में समुच्चय अलङ्कार के अनेकशः प्रयोग किये हैं। उनके ये समुच्चय अलङ्कार के प्रयोग बहुत ही सुन्दर हैं। यथा
एकं तावद्विरहिहदयद्रोहकृन्मेघकालो द्वतीयीकं प्रकृतिगहनो यौवनारम्भ एषः । तार्तीयोकं हृदयदयितः सैष भोगान्धराक्षी
स्तुयं न्याय्यान्न चलति पथो मानसं भावि हा किम् ॥ यहाँ पर चार असत् पदार्थों के समुदाय होने के कारण समुच्चय अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है। इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में समुच्चय अलङ्कार के कुछ अन्य भी अनेक प्रयोग प्रस्तुत किये हैं । __ पर्याय-पर्याय अलङ्कार का निरूपण करते हुए आचार्य मम्मट ने कहा है कि एक क्रम से अनेक में पर्याय अलङ्कार होता है
एकं क्रमेणानेकस्मिन् पर्यायः । अर्थात जहाँ एक वस्तु क्रम से अनेक में हो या की जाये तो वहाँ पर्याय अलङ्कार होता है। पर्याय अलङ्कार के प्रति आचार्य मेरुतुङ्ग की उतनी रुचि नहीं स्पष्ट होती है, क्योंकि उन्होंने जैनमेघदूतम् में पर्याय अलङ्कार
१. काव्यप्रकाश, १/११६ । २. जैनमेघदूतम्, १/४। ३. वही, १/३, ५, ६, १९, २८, ३०, ३६, ३७, ३८, ४२, ४४, ४८;
३/२३, २७, ४७; ४/२, ९, २१, २३, २९, ३६ । ४. काव्यप्रकाश, १०/११७ ।
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