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१५८ : जैनमेघदूतम्
कृष्णो देशप्रभुरभिनवश्चाम्बुदः कालिमान न्यध्यासाते तदवगमयाम्येनसैवाजितेन । तत्रैकोऽस्मत्पतिविरचिताभ्रेषपेषानिषेधा
दन्योऽस्माकं गहनगहने विप्रयोगेऽग्निसर्गात् ॥ इस श्लोक में कालिमा कृष्णत्व के हेतु अस्मत्पतिविरचिताभ्रेष आदि और अस्माकं गहनगहने आदि दो वाक्य हैं । अतः यहाँ पर काव्यलिङ्ग अलङ्कार है । इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में अन्य अनेक स्थलों पर काव्यलिङ्ग अलङ्कार के अनेक प्रयोग प्रस्तुत किये हैं, जो उपर्यक्त प्रयोग के समान ही अत्यन्त रमणीय हैं।
उदात्त-आचार्य मम्मट ने उदात्त अलङ्कार का निरूपण करते हए लिखा है कि वस्तु की समृद्धि का वर्णन उदात्त अलङ्कार है
उदात्तं वस्तुनः सम्पत् । उदात्त अलङ्कार के निरूपण में आचार्य मेरुतुङ्ग ने पर्याप्त रुचि प्रदर्शित की है । जैनमेघदूतम् में उदात्त अलङ्कार के अनेक प्रयोग प्रस्तुत किये गये हैं, जो भव्यता, स्पष्टता एवं भावबोधकता में अत्यन्त गम्भीर हैं। यथा
त्वं जीमत! प्रथितमहिमानन्यसाध्योपकारैः कस्त्वां वीक्ष्य प्रसृतिसदृशौ स्वे दृशौ नो विधत्ते। दानात्कल्पनुमसुरमणी तौ त्वयाऽधोऽक्रियेतां
कस्तुभ्यं न स्पृहयति जगज्जन्तुजीवातुलक्ष्म्यै ॥ यहाँ पर मेघ को कल्पवृक्ष एवं चिन्तामणि से भी श्रेष्ठतम बतलाये जाने के कारण उदात्त अलङ्कार है। इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में उदात्त अलङ्कार के अन्य भी अनेक प्रयोग" प्रस्तुत किये हैं, जो उपयुक्त प्रयोग के सदृश ही भावपूर्ण हैं।
१. जैनमेघदूतम्, १/५ । २. वही, १/२६, २९, ३०, ३९; २/१३, १६, २१, २७, २९, ३३, ३६;
३/३, ८, ९, १५। ३. काव्यप्रकाश, १०/११५ । ४. जैनमेघदूतम्, १/१२ । ५. वही, १/११, १८, २०, २६, ३५, ३८, ४२, ४३, ४४, ४९; २/६, १७,
३२, ४१, ४२, ४४, ४५; ३/८, १५, १६, २०, २४, २९, ४३, ५०; ४/१, ११, ३९, ४०। .
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