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भूमिका : ५ मेधावी, वाक्चतुर, बुद्धिमान्, परचित्ताभिज्ञाता, धैर्यवान् एवं जैसा कहा जाये वैसा कहने वाला दूत होना चाहिए।'
उपर्युक्त सन्दर्भो में राजनीतिक दूत की स्थिति स्पष्ट की गयी है, परन्तु साहित्यिक क्षेत्र का दूत भी उपर्युक्त सन्दर्भो से पृथक् नहीं है । प्रायः वे सभी लक्षण इस साहित्यिक दूत में भी हैं, जो राजनीतिक दूत से सम्बद्ध हैं। साहित्यिक दूत के विषय में विशेष बात यह हुई कि कवियों की काव्यमयी प्रज्ञा ने, उस राजनीतिक दूत के आधार अपने नवीन काव्यदूत की रचना कर ली। आश्चर्य की बात तो यह है कि जहाँ राजनीतिक दूत कोई बुद्धिजीवी व्यक्ति ही हो सकता है, वहाँ साहित्यिक क्षेत्र के इस काव्यदूत के हेतु, मात्र बुद्धिजीवी व्यक्ति ही नहीं, अपितु विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी, जीवविहीन वृक्ष-पादप और तो और मन-शील जैसे मनोभाव भी हो सकते हैं। इस बात का स्पष्ट प्रमाण वर्तमान में उपलब्ध दूतकाव्यसाहित्य में मिलता भी है। वर्तमान में कुछ ही दूतकाव्य हैं, जिनमें किसी बुद्धिजीवी व्यक्ति द्वारा दौत्यकर्म सम्पादित किया गया हो; शेष समस्त दूतकाव्यों का दौत्य-कर्म कपि, हरिण, चातक, हंस आदि पशु पक्षियों; भ्रमर आदि जीवों तथा मन, शील आदि मनोभावों ने ही सम्पादित किया है। यही नहीं मेघ, पवन, सुरभि जैसे निश्चेतन तत्त्वों ने भी दौत्यकर्म सम्पादित किया है। ___ अतः स्पष्टतया कहा जा सकता है कि रसमर्मज्ञ साहित्यिकों ने राजनीतिक दूत से ही प्रेरणा ग्रहीत कर, इस साहित्यिक दूत को विचित्रविधि संवार कर अपने दूतकाव्यों का दूत बनाया और उसके माध्यम से अपने प्रतिपाद्य को प्रस्तुत किया है। दूतकाव्य :
संस्कृत-काव्य साहित्य की एक विशिष्ट परम्परा के रूप में इस दूतकाव्य-विधा का प्रारम्भ भास तथा घटखर्पर के काव्यों एवं कालिदास के मेघदूत में स्पष्टतया मिलता है। फिर भी, इस परम्परा का प्रारम्भिक उत्स और भो आंधक प्राचीन प्रतीत होता है। उदाहरणतः ऋग्वेद में 'सरमा' नामक कुतिया को पणि लोगों के पास दूत बनाकर भेजने का उल्लेख हुआ है। इसी प्रकार रामायण (वाल्मीकीय) और महाभारत आदि १. चाणक्यनीति, १०६ । २. ऋग्वेद, १०८।१०८।
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