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________________ भूमिका : १५३ क्व ग्रावाणः क्व कनकनगः क्वाक्षकाः क्वामरद्रुः काचांशाः क्व क्व दिविजमणिः क्वाडवः क्व धुरत्नम् । क्वान्ये भूपाः क्व भुवनगुरुस्तस्य तद्योगिनीव ध्यानान्नेष्ये समयमिति ताः प्रत्यथ प्रत्यजानि' ॥ यहाँ पर कहाँ पत्थर और कहाँ स्वर्णगिरि सुमेरु, कहाँ बहेड़ा और कहाँ कल्पवृक्ष, कहाँ काँच के टुकड़े और कहाँ चिन्तामणि, कहाँ तारे और कहाँ भगवान् भास्कर तथा कहाँ अन्य नृप और कहाँ वे भुवनगुरु आदि के क्रम से यथासंख्य अलङ्कार हो रहा है। उपर्युक्त प्रयोग के अतिरिक्त आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में यथासंख्य अलङ्कार के तीन अन्य प्रयोग भी प्रस्तुत किये हैं, जो उपयुक्त प्रयोग की भाँति ही अतीव मनोहर हैं। अर्थान्तरन्यास-अर्थान्तरन्यास का निरूपण करते हए काव्यप्रकाशकार आचार्य मम्मट ने इसका लक्षण दिया है कि साधर्म्य अथवा वैधर्म्य द्वारा सामान्य अथवा विशेष का उससे भिन्न जो समर्थन किया जाता है, वह अर्थान्तरन्यास होता है--- सामान्यं वा विशेषो तदन्येन समर्थ्यते । यत्तु सोऽर्थान्तरन्यासः साधयेणेतरेण वा ॥ इसी को इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जहाँ विशेष से सामान्य का, सामान्य से विशेष का अथवा कारण से कार्य का, कार्य से कारण का साधर्म्य के द्वारा या वैधयं के द्वारा समर्थन किया जाता है, वहाँ अर्थान्तरन्यास होता है। परन्तु इसमें कारण से कार्य और कार्य से कारण के समर्थन में अधिकतर आलङ्कारिकों यथा मम्मट आदि ने अर्थान्तरन्यास अलङ्कार नहीं माना है। ___ आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में अर्थान्तरन्यास अलङ्कार के अनेक प्रयोग नियोजित किये हैं। उनके इन अर्थान्तरन्यास के प्रयोगों में लौकिक अनुभवों की अभिव्यक्ति परिलक्षित होती है । अर्थान्तरन्यास का उनका एक प्रयोग प्रेक्षणीय है-- १. जैनमेघदूतम्, ३/५४ । २. वही, १/२५; ४/१४, ३५ । ३. काव्यप्रकाश, १०/१०९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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