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________________ १५४ : जैनसेघदूतम् हेतोः कस्मादहिरिव तदाऽऽसञ्जिनीमप्यमुनन्सां निर्मोकत्वचमिव लघु ज्ञोऽप्यसो तन्न जाने। यदा दैदे दधति विमुखीभावमाप्तोऽप्यमित्रे तणस्य स्यात्किमु नियमने मातृजङ्घा न कोलः ॥' यहाँ पर "अपने में आसक्त, तुच्छ मुझको" आदि वाक्य को "देवे दधति विमुखी" आदि वाक्य से समर्थित किये जाने के कारण अर्थान्तरन्यास अलङ्कार स्पष्ट है । अर्थान्तरन्यास अलङ्कार के प्रयोगों में आचार्य मेरुतुङ्ग ने अनेक सूक्तियों को भी समाविष्ट कर दिया है, जो देखते ही बनती हैं; यथा-- धत्तेऽभिख्यां निकषकषणं सन्मणीनामिवादः ॥२ सान पर खरादने से चन्द्रकान्तमणि की शोभा में कुछ वृद्धि नहीं होती है। यद्वाऽऽसक्तः प्रकृतिकुटिलास्वाचरेन्निम्नगासु प्रायोऽधेयो मृदुरपि न कः स्वल्पमप्यूष्मयोगे॥ स्वभावकुटिला स्त्री में आसक्त कौन सा भद्र पुरुष भी थोड़ी सी ऊष्मा का योग होने पर अनुचित कार्य नहीं करता? स्वान्तं संविदिममबलेत्यात्मदोषोऽद्य नोद्यः ॥ ज्ञान चित्त को अवरुद्ध कर अपने दोषों का अपनोदन कर लेता है। तीर्थेष्वन्येष्वमितविमतिर्दश्यले वर्शनानां सर्वेषां तु स्फुरति पितरौ तीर्थमत्यन्तमान्यम् ॥ सभी दर्शनों का अन्य तीर्थों में यद्यपि अपार वैमत्य है फिर भी मातापिता रूपी तीर्थ सभी के अतिमान्य हैं। सामर्थ्येऽपि प्रकृतिमहतां कोऽथवा वेत्ति वृत्तम् ॥ स्वभाव श्रेष्ठ लोगों के चरित्र को कौन जान सकता है। १. जैनमेघदतम्, १/७ । २. वही, १/४० । ३. वही, २/३२ । ४. वही, ३/१३ । ५. वही, ३/१९ । ६. वही, ४/१९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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