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१५२ : जैनमेघदूतम्
विशेषोक्ति-सभी प्रसिद्ध कारणों के पूर्ण रूप में विद्यमान होने पर भी जहाँ कार्य का न होना वर्णित किया जाए, वहाँ विशेषोक्ति अलङ्कार होता है। इसी बात को काव्यप्रकाशकार आचार्य मम्मट ने अपने शब्दों में इस प्रकार अभिव्यक्त किया है कि सम्पूर्ण कारणों के होने पर भी फल का न कहना विशेषोक्ति अलङ्कार है
विशेषोक्तिरखण्डेषु कारणेषु फलावचः ।' विशेषोक्ति अलङ्कार के चार प्रयोग आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में किये हैं। इन चारों प्रयोगों में भावस्पष्टता एवं मधुरता लाने का यथाशक्य प्रयास भी इन्होंने किया है। इनमें से एक विशेषोक्ति प्रयोग निम्नवत् है
पूर्व पार्णो तदनु सकले गोहिरे भूमिपीठादुच्चै!त्वा भुजबलचयोः पीडयन् सर्वदेहम् । अत्यायस्यन्नपि हरिरुभाषाणि नानीनमत्तां
बाहामब्धिप्रसृतहिमवदीर्घदंष्ट्रामिवेभः ॥ यहाँ पर पाद को पृथ्वी से तीव्रता से उठाकर, बल की इच्छा करते हुए, बाहु को उठाये हुये आदि कारण उपस्थित होने पर भी श्रीकृष्ण नेमि की भुजा को झुका नहीं पाते हैं,अतः यहाँ पर विशेषोक्ति अलङ्कार है। इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में विशेषोक्ति अलङ्कार के तीन अन्य प्रयोग भी प्रस्तुत किये हैं ।
यथासंख्य--काव्यप्रकाशकार ने यथासंख्य अलङ्कार का लक्षण निदर्शित करते हुए कहा है कि क्रम से कहे हुए पदार्थों का उसी क्रम से समन्वय होने पर यथासंख्य अलङ्कार होता है
यथासंख्यं क्रमेणैव क्रमिकाणां समन्वयः । यथासंख्य अलङ्कार का प्रयोग जैनमेघदूतम् में मात्र चार स्थलों पर ही किया गया है । यथासंख्य अलङ्कार के ये प्रयोग पूर्णतः भाव को स्पष्ट भी करते हैं। यथासंख्य अलङ्कार के प्रयोग की प्रवीणता, उनके एक श्लोक में देखी जा सकती है--
१. काव्यप्रकाश, १०/१०८ । २. जैनमेघदूतम्, १/४७ । ३. वही, १/५०; २/:८; ४/१५ । ४. काव्यप्रकाश, १०/१०८ । ।
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