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________________ भूमिका : १५१ पादक सिद्ध होते हैं। इनमें कितने सुन्दर भाव व्यक्त किये गये हैं, यह दर्शाने हेतु निम्न एक प्रयोग प्रस्तुत है दुग्धं स्निग्धं समयतु सिता रोहिणी पार्वणेन्दुं हैमी सुद्रा मणिमुरुघृणि कल्पवल्ली सुमेरुम् । दुग्धाम्भोधि त्रिदशतटिनीत्यादिभिः सामवाक्यैः श्रीनेम्यर्थं झगिति च स मदबीजिनं मां ययाचे॥ यहाँ पर दुग्ध से मिले, पार्वणचन्द्र से मिले, मणि से मिले, सुमेरु से मिले और दुग्ध समुद्र से मिले आदि बहुत से कार्यों का कथन एक ही पदार्थ अर्थात् सामवाक्यों से होने के कारण तुल्ययोगिता अलङ्कार स्पष्ट है। इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में तुल्ययोगिता अलङ्कार के मात्र दो अन्य प्रयोग प्रस्तुत किये हैं। व्यतिरेक-इसमें उपमान का वर्णन तो गौण रूप से परन्तु उपमेय का वर्णन मुख्य रूप से किया जाता है अर्थात् उपमान से उपमेय का आधिक्य प्रदर्शित किया जाता है । इसी आधार पर व्यतिरेक का लक्षण स्पष्ट करते हए आचार्य मम्मट ने कहा है कि उपमान से अन्य अर्थात् उपमेय का जो आधिक्य है, वही व्यतिरेक अलङ्कार होता है उपसानाद यवन्यस्य व्यतिरेकः स एव सः। आचार्य मेरुतुङ्ग ने व्यतिरेक अलङ्कार के किश्चित् प्रयोग जैनमेघदूत में नियोजित किये हैं। व्यतिरेक अलङ्कार के इन प्रयोगों में भावस्पष्टता एवं हृदयग्राहकता भी विद्यमान है। यथा विश्वं विश्वं सृजसि रजसः शान्तिमापादयन् यः सङ्कोचेन क्षपयसि तमःस्तोममुन्तिह नुवानः । स त्वं मुञ्चन्नतिशयनतस्वायसे धूमयोते! तदेवः कोऽप्यभिनवतमस्त्वं त्रयोरूपधर्ता। यहाँ पर त्रयीरूप उपमान से उपमेय का आधिक्य प्रतिपादित होने के कारण व्यतिरेक अलङ्कार है । इसी प्रकार व्यतिरेक अलङ्कार के किञ्चित् अन्य प्रयोग भी जैनमेघदूतम् में नियोजित किये गये हैं, जो उपर्युक्त प्रदर्शित प्रयोग की भाँति ही अतीव रमणीय हैं । १. जैनमेघदूतम्, ३/२३ । २. वही, ३/१०, ११। ३. काव्यप्रकाश, १०/१०५ । ४. जैनमेघदूतम्, १/११ । । ५. वही, २/४६; ४१, ८, २० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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