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१५० : जैनमेघदूतम् वस्तुप्रतिवस्तुभाव है और दो भिन्न अर्थों का दो बार कथन बिम्बप्रतिबिम्बभाव है। इस प्रकार दृष्टान्त अलङ्कार में एक ही साधारण धर्म, भिन्न-भिन्न शब्दों से अभिहित नहीं किया जाता है, जैसे प्रतिवस्तूपमा में । इस अलङ्कार में वर्णनीय बात का दृष्टान्त द्वारा निश्चय किया जाता है।
आचार्य मेरुतुङ्ग ने दृष्टान्त अलङ्कार के प्रयोग में पर्याप्त रुचि प्रदशित की है । उन्होंने जैनमेघदूतम् में दृष्टान्त अलङ्कार के अनेकशः प्रयोग नियोजित किये हैं । दृष्टान्त के ये प्रयोग अत्यन्त प्रभावी भी सिद्ध हुए हैं । यथा
प्रेमाधिक्यात्प्रतितरु हरिः पुष्पपूरप्रचार्य कृत्वा नेमि स्वयमुपचरन् सत्यभामादिभार्याः । भ्रूविक्षेपं समदमनुदत्तत्र कृत्ये तदानीं
श्रेयोदृष्टि हिमरुचिरिवानेहसं प्रेयसीः स्वाः । इस श्लोक में श्रीकृष्ण के लिए चन्द्रमा का, श्रीनेमि के लिए कल्याणसूचक काल का और सत्यभामादि भार्या के लिए रोहिणी आदि का दृष्टान्त देने से दृष्टान्त अलङ्कार सिद्ध हुआ है। इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में विविध दृष्टान्त-प्रयोगों को नियोजित कर अपनी अलङ्कारप्रस्तुति के प्रति निपुणता का परिचय दिया है ।
तुल्पयोगिता : इसमें या तो प्राकरणिक अर्थात् प्रकृत पदार्थों का या फिर अप्राकरणिक अर्थात् अप्रकृत पदार्थों का एक साधारण धर्म के साथ सम्बन्ध होता है अर्थात् वर्णनीय होने के कारण प्राकरणिक पदार्थों या अप्राकरणिक पदार्थों के धर्म का जहाँ एक बार कथन किया जाये, वहाँ तुल्ययोगिता अलङ्कार होता है। इसी आधार पर आचार्य मम्मट ने तुल्ययोगिता अलङ्कार का निरूपण करते हुए लिखा है कि प्रकृत या अप्रकृत पदार्थों के धर्म का एक बार कथन होने पर तुल्ययोगिता अलङ्कार होता
नियतानां सकृद्धर्मः सा पुनस्तुल्ययोगिता।' आचार्य मेरुतुङ्ग ने तुल्ययोगिता अलङ्कार के अत्यल्प प्रयोग जैनमेघदूतम् में प्रस्तुत किये हैं। फिर भी ये किश्चित् प्रयोग ही अत्यन्त प्रभावो
१. जैनमेघदूतम्, २/१७ । २. वही, २/१९; ३/८,९,१३,२५,२७,५५,४/१४,३० । ३. काव्यप्रकाश, १०/१०४ । ।
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