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भूमिका : १४९ काव्यप्रकाशकार आचार्य मम्मट ने अतिशयोक्ति अलङ्कार का लक्षण स्पष्ट करते हुए लिखा है कि उपमेय का निगरण करते हुए उपमान के साथ उपमेय का जहाँ अभेदज्ञान होता है, उसको अध्यवसाय कहते हैं और यह अध्यवसाय जहाँ पर सिद्ध हो जाये, वहाँ अतिशयोक्ति अलङ्कार होता है
निगीर्याध्यवसानं तु प्रकृतस्य परेण यत् प्रस्तुतस्य यदन्यत्वं यद्यथोऽक्तौ च कल्पनम् । कार्यकारणयोर्यश्च पौर्वापर्यविपर्ययः
विज्ञेयाऽतिशयोक्तिः सः॥ आचार्य मेरुतुङ्ग ने अतिशयोक्ति अलङ्कार के निरूपण में अत्यन्त रुचि ली है । उन्होंने जैनमेघदतम् में अतिशयोक्ति अलङ्कार के अनेक प्रयोग प्रस्तुत किये हैं । अतिशयोक्ति के ये प्रयोग पूर्णतया स्पष्ट भाव वाले एवं मधुर हैं । यथा
भाण्डागारं गतभयममुवीक्ष्य हृष्टः समस्तान् धैर्योदार्यादिकगुणमणीनत्र वेधा न्यधत्त । तान् कि वक्तु गणयितुमथ प्रेक्षितुं भूर्भुवः स्वः- .
प्रष्ठा देवा मुखकर दृशां साक्षिणोऽधुः सहस्त्र॥ यहाँ पर श्रीनेमि और भाण्डागार (सुरक्षित कोश) का अभेद कथन, भेद रहने पर भी किया गया है, अतः भेद में अभेद अध्यवसाय के कारण अतिशयोक्ति अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है। इसी प्रकार जैनमेघदूतम् में अतिशयोक्ति अलङ्कार के अन्य अनेक प्रयोग भी प्रस्तुत किये गये हैं।
दृष्टान्त-आचार्य मम्मट ने दृष्टान्त अलङ्कार का निरूपण करते हुए कहा है कि साधारण धर्म सहित वस्तु अर्थात् उपमान उपमेय आदि का प्रतिबिम्बन दृष्टान्त अलङ्कार कहलाता है
दृष्टान्तः पुनरेतेषां सर्वेषां प्रतिबिम्बनम् । दृष्टान्त अलङ्कार वहाँ होता है, जहाँ उपमान, उपमेय और साधारण धर्म का बिम्बप्रतिबिम्बभाव हो । एक ही अर्थ का दो शब्दों से अभिधान १. काव्यप्रकाश, १०/१००। -.. २. जैनमेघदूतम्, १/२५ । ३. वही, १/३८; २/१४,१८,४३,४४; ३/३,७,१४,१६,२०,२१,२५,२८,३०,
३१,३४,३९,४५; ४/२,६,९,१०,२८,३४,४०,४२। . १ . काव्यप्रकाश, १०/१०२ ।
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