SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ : जैनमेघदूतम् निदर्शना, अभवन् वस्तुसम्बन्ध उपमा परिकल्पकः । आचार्य मेरुतुङ्ग ने निदर्शना अलङ्कार के प्रयोग में भी पर्याप्त रुचि प्रदर्शित की है। जैनमेघदूतम् में नियोजित निदर्शना अलङ्कार के ये प्रयोग अति सुन्दर भाव व्यक्त करते हैं। निदर्शना अलङ्कार का निम्न प्रयोग दर्शनीय है । यथा नोलीनीले शितिलप नयन वर्षयत्यश्रु वर्षन् गर्जत्यस्मिन् पटु कटु रटन् विद्ययत्यौषण्यमियत् । वर्षास्वेवं प्रभवति शुचे विप्रलब्धोऽम्बुवाहे वामावर्गः प्रकृतिकुहनः स्पर्धतेऽनेन युक्तम् ॥ यहाँ पर विरहिणी स्त्रियों का अश्रु बरसाने, विलाप करने, निःश्वास छोड़ने आदि से मेघ के गर्जने, बरसने और चमकने का सम्बन्ध स्थापित होने से परस्पर में बिम्बप्रतिबिम्बभाव व्यक्त होने के कारण निदर्शना अलङ्कार है। इसी प्रकार जैनमेघदूतम् के अन्य अनेक स्थलों पर निदर्शना अलङ्कार के अनेक प्रयोग प्रदर्शित किये गये हैं। अतिशयोक्ति-वस्तुतः यह अलङ्कार चार विभिन्न अलङ्कारों का समुदाय है, परन्तु इन चारों अलङ्कारों के मूल में लोकातीत उक्ति अर्थात् अतिशयोक्ति विद्यमान है। अतः इसका साधारण योगरूढ़ नाम अति. शयोक्ति है। इसमें उपमेय अधिक गौण हो जाता है और उपमान इतना प्रधान हो जाता है कि उपमेय को पूर्णतः निगल जाता है । किसी नायिका के मुख को देखकर एकदम यह कह दिया जाता है-'चन्द्रः उदेति' (चाँद निकल आया है), यहाँ मुख का चाँद ने निगरण कर लिया है। इसी दशा को अतिशयोक्ति कहते हैं । ध्यातव्य यह है कि इसमें अभेदज्ञान आहार्य अर्थात् कल्पित होता है। उपमान द्वारा उपमेय के निगरण के पश्चात् जब उनके अभेद का ज्ञान होता है, तब दोनों की भिन्नता का भी पता रहता है । जब किसी नायिका का मुख देखकर कह उठते हैं कि-'चन्द्रः उदेति' तो इसका अभिप्राय यह नहीं कि उसको वास्तव में चन्द्रमा समझ लेते हैं। यदि ऐसा मान लें तब तो वहाँ भ्रान्तिमान् अलङ्कार हो जायेगा, परन्तु वास्तव में वहाँ उनकी अभिन्नता की कल्पना करते हैं, यही अतिशयोक्ति १. काव्यप्रकाश, १०९७ । २. जैनमेघदूतम्, १/६ । : ३. वही, २/५,९,१०,१४,२०,२३,२४,४५,४८,४९; ३/९; ४१९,३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy