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भूमिका : १४७ समासोक्तिः समासोक्ति अलङ्कार का अर्थ है-'समासेन अर्थात् संक्षेपेण उक्तिः'। श्लेषयुक्त भेदकों अर्थात् विशेषणों द्वारा पर अर्थात् अप्रस्तुत का कथन समासोक्ति है। इसी को इस प्रकार कह सकते हैं कि इसमें प्रस्तुत के वर्णन द्वारा अप्रस्तुत का बोध कराया जाता है और यह बोध श्लेषयुक्त विशेषणों की सहायता से होता है, क्योंकि ये विशेषण प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों से समान रूप से सम्बन्ध रखने वाले होते हैं। काव्यप्रकाशकार ने समासोक्ति अलङ्कार का लक्षण इस प्रकार किया है कि जहाँ सम अर्थात् प्रस्तुत और अप्रस्तुत में समान रूप से अन्वित होने वाले कार्य, लिङ्ग और विशेषणों से प्रस्तुत में अप्रस्तुत के व्यवहार का आरोप किया जाता है, वहाँ समासोक्ति अलङ्कार होता है
परोक्तिर्भवकैः श्लिष्टः समासोक्तिः। समासोक्ति अलङ्कार के प्रयोग में मेरुतुङ्ग सिद्धहस्त हैं । मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में समासोक्ति अलङ्कार के अनेक प्रयोग किये हैं, जो अपनी विचित्रता के कारण दर्शनीय हैं। यथा
आगृह्णानावुपयतिकृते कृत्स्नवात्सल्यखानी पौनःपुन्यात्प्रकृतिसरलौ क्षीरकण्ठाविवैतौ । लप्स्ये लोकम्पृणगुणखनी चेत्कनी तद्विवक्ष्येऽ
तीक्ष्णोक्त्येत्यागमयत कियत्कालमेषोऽप्यलक्ष्यः ।। यहाँ पर लोकम्पूर्णगुणखनी चेत्कनी लोकप्रीतिकारी शम मार्दव सन्तोष आदि गुणों की खान के समान किसी कन्या में लोकप्रीतिकारी गुणों वाली दीक्षा का समारोप होने से समासोक्ति अलङ्कार है। इसी प्रकार जैनमेघदूतम् में समासोक्ति अलङ्कार के किञ्चित् अन्य प्रयोग भी प्रस्तुत किये गये हैं, जो उपयुक्त प्रयोग की भाँति ही अति रोचक हैं।
निदर्शना-आचार्य मम्मट ने निदर्शना अलङ्कार का लक्षण देते हुए कहा है कि जहाँ वस्तु का असम्भव या अनुपद्यमान सम्बन्ध अर्थात् प्रकृत का अप्रकृत के साथ सम्बन्ध उपमा का परिकल्पक होता है, वहाँ निदर्शना अलङ्कार होता है
१. काव्यप्रकाश, १०/९७ । २. जैनमेघदूतम्, १/३१ । ३. वही, १/३४,४४; २/१४,१५,२१,२८,३०,३३,३७,
४/२१,२३,४०,४१ ।
३/३,२२,२३,४६;
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