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१४६ : जेन मेघदूतम्
अनुतप्ते प्ररुदित इव अर्थात् अनुतप्त होकर रोते हुए से वे कमल सुशोभित हुए, में उत्प्रेक्षा अलङ्कार स्पष्ट है । इसी प्रकार जैनमेघदूतम् के चारों सर्गों में आचार्य मेरुतुङ्ग ने उत्प्रेक्षा अलङ्कार के अन्य भी अनेक प्रयोग' प्रस्तुत किये हैं, जो दर्शनीय हैं ।
रूपक : रूपक अलङ्कार का लक्षण स्पष्ट करते हुए आचार्य मम्मट ने लिखा है कि उपमान और उपमेय का जो अभेद वर्णन है, वही रूपक है अर्थात् अत्यन्त सादृश्य के कारण प्रसिद्ध भेद वाले उपमान और उपमेय का अभेद वर्णन रूपक अलङ्कार होता है—
तद्रूपकमभेदौ य उपमानोपमेययोः २ ।
आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में रूपकों के अत्यन्त सजीव प्रयोग किये हैं । रूपक अलङ्कार के निरूपण में मेरुतुङ्ग की अलङ्कारनिपुणता - कला पूर्णतया प्रस्फुटित मिलती है । इनके इन रूपक प्रयोगों में उपमान और उपमेय में ऐसा सीधा सम्बन्ध बैठ जाता है कि उपमेय पर उपमान का आरोप स्वयमेव स्पष्ट हो जाता है । यथा
मन्दं मन्दं स्वयमपि यथा सान्त्वयत्येष कान्तं मत्सन्देशैर्दवमिव दप्लुष्टमुत्सृष्टतोयैः ॥
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अर्थात् जिस प्रकार यह मेघ अपने मुक्त जल से दावानल से दग्ध वन को धीरे-धीरे शान्त करता है, उसी प्रकार यह मेरे स्वामी (श्रीनेमि) के हृदय को भी मन्द मन्द गति से स्वयं ही मेरे सन्देश के द्वारा सान्त्वना देगा ( शान्त करेगा ) । यहाँ उपमेय कान्त पर दावानल से दग्ध वन अर्थात् उपमान का आरोप होने के कारण कितना सुन्दर रूपक परिलक्षित होता है । इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में रूपक अलङ्कार के अन्य बहुत से प्रयोग प्रस्तुत किये हैं, जिनके भाव अत्यन्त स्पष्ट एवं अर्थबोधक हैं ।
१. जैनमेघदूतम्, १/२,१६,१९,२५,४१,४८; २/२,३,४,५,६,७,८,१३,१४, २२,२८,२९,३४,३९,४४, ३/२, ३, ३१, ३२, ३४, ३५, ३६, ३८, ४/३,४, ५,१२ ।
२. काव्यप्रकाश, ११/९३ ।
३. जैनमेघदूतम्, १/८ ( उत्तरार्ध) |
४. वही, १ / १४, १५, २५, २९, ३१, ३४, ३७; २/२, ३, ६, ८, १०, १४, १५, २१, ३४, ३९,४३,४४,४७,४९; ३ / ११,१४, १८, २१, २७, ३९, ४६, ४७,४८,५१,५२;
४/६, १०,११,२३,३९,४०,४१ ।
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