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________________ १४२ : जैनमेघदूतम् अनुप्रासप्रयोग कर्णकटु भी बन गये हैं। यथा-काचिच्चश्चत्परिमलमिलल्लोलरोलम्बमाला', तोयस्थानान्यतिघनरसानाददानः२, पौरगौराननरुचिभरहूतिकर्मान्तरेणै। प्रायः इसी प्रकार जैनमेघदूतम् के प्रत्येक श्लोक में अनुप्रास अलङ्कार प्राप्त होता है, भले ही कहीं पर शब्दानुप्रास के रूप में, कहीं वृत्यानुप्रास के रूप में और कहीं लाटांनुप्रास के रूप में । श्लेष : आचार्य मम्मट ने श्लेष अलङ्कार का निरूपण करते हुए कहा है कि अर्थ का भेद होने से भिन्न-भिन्न शब्द एक साथ उच्चारण के कारण जब मिलकर एक हो जाते हैं, तो वह श्लेष अलङ्कार होता है-- वाच्यभेदेन भिन्ना यद् युगपद् भाषणस्पृशः। लिष्यन्ति शब्दाः श्लेषोऽसावक्षरादिभिरष्टधा ॥ श्लेष अलङ्कार के प्रयोग में आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपनी कला को पूर्णतया निखारा है। जैनमेघदूतम् में सर्वाधिक अलङ्कार के रूप में श्लेष ही प्रयुक्त है। श्लेषयुक्त किञ्चित् स्थलों का दिग्दर्शन किया जा सकता है। यथा कश्चित्कान्तामविषयसुखानीच्छुरत्यन्तघोमानेनोवृत्तिं त्रिभुवनगुरुः स्वरमुज्झाञ्चकार । दानं दत्वा सुरतरुरिवात्युच्चधामारुरुक्षुः पुण्यं पृथ्वीधरवरमथो रैवतं स्वीचकार" ॥ यहाँ पर कश्चित् शब्द में श्लेष स्पष्ट होता है, क्योंकि इस पद से श्रीनेमिनाथ का बोध हो रहा है। इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् के अन्य अनेक स्थानों पर श्लेष अलङ्कार के प्रयोग प्रस्तुत किये हैं। जैनमेघदूतम् में पदे-पदे लगे १. जैनमेघदूतम्, २/१९ । २. वही, २/३३ । ३. वहीं, ३/३५ । ४. काव्यप्रकाश, ९/८४ । ५. जैनमेघदूतम्, १/१ । ६. वही, १/२, ७, ११, १४, २०, २१, ३२, ३७, ३९, ४२, ४३, ४८; २/१, २, ४, १०, १८, २८, २९, ३०, ३२, ३३, ३५, ३७, ४०, ४३; ३/४, ६, १२, ३८, ३९, ५२; ४/१, ८, ११, १२, २५, २६, २७, ३३, ३४, ३५, ३६, ४०, ४१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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