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________________ भूमिका : १४१ अनुप्रास : - वर्णों की समानता अथवा आवृत्ति ही अनुप्रास है । जो उद्देश्य राइम (Rhyme अर्थात् अन्त्यनुप्रास, तुकबन्दीपूर्ण कविता या काफिया) का है, वही उद्देश्य अनुप्रास का है । एक ध्वनि की आवृत्ति में एक ही ध्वनि सङ्गीत रहता है । राइम में प्रत्येक पक्ति के शेष अक्षर में वह ध्वनि घूमकर आ जाती है, उसमें एक विशेष प्रकार का श्रुतिमाधुर्य होता है । इसके विपरीत अभिन्न- अक्षर छन्द में वह माधुर्य नहीं होता है । इस माधुर्य की पूर्ति वहाँ पर अनुप्रास हो करता है । किन्तु जिस ध्वनि की पुनरावृत्ति करनी हो, वह भी मधुर होनी चाहिए। जो विकट ध्वनि है, उसके बार-बार के आघात से वाक्यविन्यास श्रुतिमधुर होने के स्थान पर और कर्णकटु ही हो जाता है। यदि ऐसे शब्दों का प्रयोग अपरिहार्य ही हो तो एक ही पङ्क्ति में एक ही बार उसका प्रयोग करना उचित होता है । क्योंकि वीणा के तार में बार-बार भी झनकार देने पर वह श्रुतिमधुर ही लगती है पर ढेकी की ढक ढक एक भी बार कर्णपट को मधुर ध्वनि नहीं दे पाती है । अनुप्रास का लक्षण स्पष्ट करते हुए काव्यप्रकाशकार आचार्य मम्मट ने लिखा है वर्णसाम्यमनुप्रास : " अर्थात् वर्णों की समानता अथवा आवृत्ति ही अनुप्रास है । आचार्य मेरुतुङ्ग के अनुप्रास प्रयोग में वीणा की मधुर ध्वनि मिलती हैं, पर इतना अवश्य प्रतीत होता है कि इस मधुर झनकार को उत्पन्न करने के लिए उनको अथक प्रयास अवश्य करना पड़ा है, तभी जाकर वे इसमें सफलीभूत हुए हैं। उनके नीलोनीले, कनककदलीसचगाः 3, दुदुवुरिव', नवनवनवान्' आदि अनुप्रास स्थलों में पर्याप्त श्रुतिमधुरता उपलब्ध होती है। फिर भी जैनमेघदूतम् के अनुप्रास प्रयोगों में कहीं-कहीं गूढता भी आ गयी है, जो स्वाभाविक है । इसी कारण काव्य के कुछ १. काव्यप्रकाश, ९/१०४ । २. जैनमेवदूतम्, १/६ । ३. वही, १/१६ । ४. वही, १/१९ | ५. वही, १/२७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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