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________________ १४० : जैनमेघदूतम् कश्चित्कान्तामविषयसुखानीच्छुरत्यन्तधीमानेनोवृत्ति त्रिभुवनगुरुः स्वैरमुज्झाश्चकार । दानं दत्वा सुरतरुरिवात्युच्चधामारुरुक्षुः पुण्यं पृथ्वीधरवरमथो रैवतं स्वीचकार॥' अर्थात् तीनों लोकों के गुरु तथा अत्यन्त् बुद्धिमान किसी अर्थात् श्रीनेमिनाथ ने चिदानन्द सुखों को पाने की इच्छा से सभी पाप-व्यापारों की मूलकारण कान्ता (राजीमती) का त्याग कर दिया । तदनन्तर सुरतरु के सदृश अर्थात् सभी की इच्छाओं को पूर्ण करने वाला दान देकर तथा अत्युच्च पद पर आरोहण करने की इच्छा से पर्वतश्रेष्ठ एवं पवित्र रैवतक को स्वीकार किया। १. यहाँ पर कवि ने श्रीनेमि के सम्बन्ध में प्रतिपादन करते हुए कश्चित्कान्तां तत्याज रैवतं स्वीचकार कहा है, अतः उसके उपलक्षण के कारण यहाँ अवसर अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है। २.कान्तात्याग में विषयसुखेच्छा आदि हेतु थे, इसलिए हेतु अलङ्कार भी स्पष्ट होता है। ३. कान्ता का त्यागकर श्रीनेमि ने पर्वतश्रेष्ठ रैवतक को स्वीकार किया, अतः यहाँ दो क्रियाओं का परस्पर सम्बन्ध होने के कारण दीपक अलङ्कार भी स्पष्ट होता है। ४. पुण्यपृथ्वीधरवरं इस कथन से जाति अलङ्कार भी स्पष्ट होता है। ५. एक ही वाक्य से, उसी पद से अन्य अर्थ के उद्भव के कारण श्लेष अलङ्कार भी स्पष्ट है। ... ६. सुरतरुरिव इस कथन से उपमा अलङ्कार का बोध होता है। अतः इस प्रथम श्लोक में ही हमें अवसर, हेतु, दीपक, जाति, श्लेष तथा उपमा अलङ्कार आदि छः अलङ्कार उपलब्ध होते हैं। इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपने जैनमेघदूतम् में सर्वत्र इसी प्रतिभा-प्रकाशन के निमित्त एक श्लोक में ही अनेक अलङ्कारों को समाहित करने का सफल प्रयास किया है। उन्होंने शब्दालङ्कारों एवं अर्थालङ्कारों, दोनों का अपने काव्य में यथाविधि प्रयोग किया है। इस क्रम में हम यहाँ सर्वप्रथम जैनमेघदूतम् में प्रयुक्त शब्दालङ्कारों पर विचार प्रस्तुत कर रहे हैं, तत्पश्चात् अर्थालङ्कारों पर विचार करेंगे१. जैनमेघदूतम्, १/१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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