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भूमिका : १३९ चमत्कारपूर्ण भङ्गी शब्दार्थ का उपस्कार करती है, अतः वक्रोक्ति अलङ्कार है
उभावतावलङ्कार्यों तयोः पुनरलकृतिः ।
वक्रोक्तिरेव वेदग्ध्यभङ्गोभणितिरुच्यते ॥ - औचित्य-सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य क्षेमेन्द्र ने स्पष्ट किया है कि औचित्य का अर्थ है-काव्याङ्गों के अनुरूप घटना का होना । औचित्य काव्य का कोई स्वतन्त्र तत्त्व न होकर सभी काव्य-तत्त्वों का प्राण है। इस सिद्धान्त के अनुसार काव्य के अलङ्कार अपने आप में काव्य-सौन्दर्य के हेतु नहीं हैं । उचित विन्यास होने पर ही अलङ्कार सच्चे अर्थ में अलङ्कार होते हैं और काव्य की श्रीवृद्धि करते हैं
अलङ्कारास्त्वलङ्कारा गुणा एव गुणाः सदा।
उचितस्थानविन्यासादलङ्कृतिरलकृतिः२ ॥ इस प्रकार रसवादी आचार्यों के अनुसार इसका प्रधान लक्ष्य हैशब्दार्थ का शोभावर्द्धन करते हुए रस का उपकार करना ।
जैनमेघदूतम् में अलङ्कार : ___ सामान्य रूप से यह स्वोकार्य है कि रस अथवा प्रेषणीय भाव के उपकारक धर्म ही अलङ्कार हैं। जहाँ अलङ्कार एवं अलङ्कार्य में पूर्ण सामरस्य स्थापित हो जाये, वहाँ काव्य की प्रकृत रमणीयता उपलच्छित होने लगती है। आचार्य मेरुतुङ्ग के जैनमेघदूतम् में अलङ्कार-प्रस्तुति इसी कोटि की है। जैनमेघदूतम् में नियोजित अनेकविध अलङ्कार, उनकी प्रस्तुति-कला के प्रस्तोता हैं। आचार्य मेरुतुङ्ग की यह विशेष प्रतिभा का ही परिणाम है कि जैनमेघदूतम् में निगूढित ये अलङ्कार-प्रयोग सहृदय रसिक को आस्वादित किये बिना नहीं रहते। इनका प्रत्येक अलङ्कार अपने में एक विशेष चमत्कृति रखता है। इन्होंने समस्त अलङ्कारों की प्रस्तुति में अपनी प्रतिभा को प्रकाशित किया है । प्रायः जैनमेघदूतम् का प्रत्येक श्लोक चार-पाँच अलङ्कारों के गुच्छ से अलङ्कृत है। कहीं-कहीं तो मेरुतुङ्ग ने एक ही श्लोक में अनेक अलङ्कारों को एक साथ प्रयुक्त कर अपनी अलङ्कार-प्रतिभा को चमत्कृत करने का प्रयास किया है। यथा-- १. वक्रोक्तिजीवितम्, १/१० । २. औचित्यविचारचर्चा, ६ ।
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