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________________ १३८ : जैनमेघदूतम् अलङ्कार को काव्य-सौन्दर्य का आवश्यक उपादान मानने के कारण भामह अलङ्कार-सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने गये हैं। रुय्यक के शब्दों में अलङ्कार तन्त्र प्रजापति है। दण्डी ने अलङ्कार के व्यापक अर्थ में उसे काव्य-सौन्दर्य का हेतु कहा है-काव्यशोभाकरान् धर्मानलङ्कारात् प्रचक्षते ।' दण्डी ने विशिष्ट अर्थ में उपमा आदि अलङ्कार को श्लेष, प्रसाद आदि दस गुणों से जहाँ दोनों का सापेक्ष महत्त्व निर्धारित करना चाहा है, वहाँ अलङ्कार की अपेक्षा गुण पर ही उनका विशेष आग्रह जान पड़ता है । दण्डी अलङ्कार को काव्य का आभ्यन्तर धर्म ही स्वीकार करते हैं। वामन ने अलङ्कार को काव्य-सौन्दर्य का पर्याय मानकर काव्य को अलङ्कार के सद्भाव से ही ग्राह्य कहा था। अलङ्कार काव्य-सौन्दर्य की वृद्धि करते हैं--तदतिशयहेतवस्त्वलङ्काराः । स्पष्ट है कि गुण के अभाव में अलङ्कार से काव्यत्व नहीं आ सकता है। अलङ्कार सौन्दर्य की सृष्टि नहीं कर सकते हैं। भामह तथा दण्डी की भाँति वामन ने भी रस, ध्वनि को अलङ्कार में अन्तर्भत माना है। काव्य में अलङ्कार के सापेक्ष महत्त्व की दृष्टि से वामन और दण्डी का मत प्रायः मिलताजुलता है। आचार्य उद्भट अलङ्कार को गुण के समान ही महत्त्व देते हैं । उनका मत है कि अलङ्कार भी काव्य-सौन्दर्य के हेतु हैं। जयदेव ने काव्य-लक्षण में अलङ्कार की अनिवार्य सत्ता मानी है निर्दोषा लक्षणवती सरोतिर्गुणभूषणा। सालङ्काररसानेकवृत्तिक्किाव्यनामभाक् ॥ उन्होंने तो यहाँ तक कहा है कि अलङ्कारहीन शब्दार्थ को काव्य मानना उष्णतारहित अग्नि की कल्पना करने के समान है अङ्गीकरोति यः काव्यं शब्दावनलङ्कृती। असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलकृती ॥ वक्रोक्ति-सम्प्रदाय के अधिष्ठाता आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का सर्वस्व कहा है। यह वक्रोक्ति या उक्ति की लोकोत्तर १. काव्यादर्श, २/१ । २. काव्यालङ्कार, ३/१/२ । ३. चन्द्रालोक, १/७ । ४. वही, १/८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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