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भूमिका : १३७ यास्क और भरत के बीच अलङ्कार के कुछ शास्त्रीय शब्द प्रयुक्त मिलते हैं। पाणिनि के समय तक सादृश्यमूलक अलङ्कार स्वीकृत हो चुके थे। कृत, तद्धित्, समास आदि पर सादृश्य का प्रभाव स्पष्ट है । अतएव यह सिद्ध होता है कि वैयाकरणों ने उपमा आदि अलङ्कारों से प्रभाव ग्रहण कर तुलना-सूचक शब्दों के नियमन का विधान किया है। इस नियमन के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि अलङ्कारशास्त्र का बीजारोपण भरत मुनि के पूर्व हो चुका था । यही कारण है कि वैयाकरणों ने अलङ्कार के प्रभाव को ग्रहण किया है।
काव्य में अलङ्कार के स्थान तथा अन्य काव्य-तत्त्वों के साथ उसके सापेक्ष महत्त्व के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के मत प्रकट किये गये हैं । इस दृष्टिभेद के कारण काव्य के स्वरूप के सम्बन्ध में मतभेद स्वाभाविक था। अतः काव्य-स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न मत स्थापित करने वाले छ: प्रस्थान भारतीय काव्यशास्त्र में प्रसिद्ध हैं-अलङ्कार-प्रस्थान, रीतिप्रस्थान, वक्रोक्ति-प्रस्थान, रस-प्रस्थान, ध्वनि-प्रस्थान और औचित्यप्रस्थान ।
भामह, उभट आदि आलड़ारिकों ने काव्य-सौन्दर्य के लिए काव्य का अनिवार्य धर्म अलङ्कार को माना है, परन्तु उससे विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त उपमा आदि माधुर्य स्पष्ट नहीं हो पाता है। भामह ने काव्य के अलङ्कार को नारी के आभूषण के समान बताकर कहा कि जैसे रमणी का सुन्दर मुख भी भुषण के अभाव में सुशोभित नहीं होता, उसी प्रकार अलङ्कारहीन काव्य सुशोभित नहीं होता है-न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनिताननम् ।' भामह ने वक्रोक्ति या अतिशयोक्ति को अलङ्कार का प्राण माना है । वक्रोक्ति से अनुप्राणित होने के कारण अलङ्कार काव्यार्थ को भावित करते हैं । अलङ्कृत या प्रकृत उक्ति वार्ता मात्र होती है, काव्य नहीं
गतोऽस्तमर्को भातोन्दुर्यान्ति वासाय पक्षिगः । इत्येवमादि कि काव्यं वार्तामनां प्रचक्षते ॥२
१. काव्यालङ्कारसूत्र, १/१३ । २. वही, २/८७ ।
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