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________________ १३६ : जेनमेघदूतम् तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार हारादि अलङ्कार युवती के नैसर्गिक सौन्दर्य की वृद्धि में उपकारक होते हैं, उसी प्रकार उपमादि अलङ्कार काव्य की रसात्मकता के उत्कर्षक हैं । इस सिद्धान्त का पोषण आनन्दवर्द्धन, मम्मट, विश्वनाथ प्रभृति रसवादी आचार्यों ने भी किया है । ये रसवादी आचार्य अलङ्कार की सर्वथा उपेक्षा नहीं करते हैं, बल्कि ये उचित और सन्तुलित रूप में अलङ्कार-योजना को महत्त्व देते हैं। निस्सन्देह अलङ्कार वाणी के विभूषण ही हैं। इनके द्वारा अभिव्यक्ति में स्पष्टता, भावों में प्रभविष्णुता, प्रेषणीयता तथा भाषा में सौन्दर्य का सम्पादन होता है। अतएव काव्य में रमणीयता और चमत्कार का आधान करने के लिए अलङ्कारों की स्थिति अनिवार्य है। यूनानी काव्यशास्त्र के अनुसार अलङ्कार उन विधाओं का नाम है, जिनके प्रयोग द्वारा श्रोताओं के मन में वक्ता अपनी इच्छा के अनुकूल भावना जगाकर, उनको अपना समर्थक बना सकते हैं। भारतीय चिन्तक भी वैदिक युग से ही अलङ्कार का महत्त्व स्वीकार करते चले आ रहे हैं। स्पष्टता और प्रभावोत्पादन के हेतु वाणी में अनायास ही अलङ्कार आ जाते हैं । विकास की दृष्टि से अलङ्कार के क्षेत्र की तीन स्थितियाँ मानी जा सकतो हैं-(१) आदिम-स्थिति, (२) विकसित-स्थिति और (३) प्रतिष्ठित-स्थिति । पहली आदिम-स्थिति में अध्येताओं को काव्य के प्रभावक धर्म का एक ही रूप ज्ञात था, जिसको वे अलङ्कार कहते थे। उसके बाद दूसरी विकसित-स्थिति में अलङ्कार शब्द में अर्थ-विस्तार हुआ और सौन्दर्य मात्र को ही अलङ्कार कहा जाने लगा। तत्पश्चात् इस तीसरी प्रतिष्ठित-स्थिति में प्रभावक धर्म की दूसरी विधाओं को स्वतन्त्रता मिली और वे सभी अलङ्कार के साथ शास्त्रीय अध्ययन का विषय बन गयीं। इस प्रकार अलङ्कारशास्त्र के अन्तर्गत काव्य के सभी उपकरण और रचना-प्रक्रिया अन्तर्भूत हो गयी। ___ ऋग्वेद में उपमा, रूपक, यमक आदि का प्रयोग पाया जाता है । यास्क ने “अलङ्करिष्णुम्" का प्रयोग अलङ्कार के अर्थ में किया है-तितनिषं धर्मसन्तानावपेतमङ्करिष्णुमयज्वानम्। इन्होंने निघण्टु में उल्लिखित उपमा-वाचक द्वादश शब्दों में से दश का प्रयोग तृतीय अध्याय में कर अलङ्कारशास्त्र की उपादेयता प्रदर्शित की है। वैयाकरणों द्वारा १. हिन्दी साहित्यकोश, पृ० ७ । २. निरुक्त, ६/१७ ।, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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