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________________ भूमिका : १३५ अलङ्कार का सामान्य रूप है-वैचित्र्यमलङ्कारः अर्थात् वैचित्र्य, विचित्रता। अलङ्कार कभी विचित्रता से होन नहीं हो सकता या यह कहें कि विचित्रता या चमत्कार ही अलङ्कार की कसौटी है । अलङ्कार का अलङ्कारत्व भी तभी है, जब वह किसी चमत्कार से मण्डित हो। बिना विचित्रता के कोई भी साधन अलङ्कार के नाम से अभिहित नहीं किया जा सकता है। यदि वैचित्र्य नहीं तो अलङ्कार भी नहीं । मान लें कोई कवि बैल का वर्णन करता हुआ कहता है-- गोरपत्यं बलीवर्दः, तृणान्यत्ति मुखेन सः । अर्थात् यह गाय का बेटा बैल है, जो मुख से तृणों को चरता है। अब यह वर्णन जातिगत होने से सच्चा अवश्य ही है पर यह चमत्कारहीन होने के कारण अलङ्कार की कोटि में कभी भी नहीं आ सकता है। इस प्रकार अलङ्कार का सामान्य लक्षण है-वैचित्र्य; जिसे प्रत्येक अलङ्कार में होना नितान्त आवश्यक होता है। ___इस अलङ्कार शब्द का प्रयोग दो अर्थों में हुआ है। दोनों ही अर्थ अलङ्कार शब्द की अलग-अलग व्युत्पत्तियों से उपलब्ध हैं । भाव-व्युत्पत्ति से अलङ्कार शब्द का अर्थ (अलङ्कृति अर्थात् अलम् + कृ + क्तिन् = अलङ्कृति तथा अलम् + कृ+घञ् = अलङ्कार) भूषण या शोभा का भाव है-- अलङकृतिरलङ्कारः । इस अर्थ में अलङ्कार सौन्दर्य से अभिन्न है। इसी अर्थ में वामन ने अलङ्कार को सौन्दर्य का पर्याय कहकर अलङ्कारयुक्त काव्य को ग्राह्य तथा अलङ्कारहीन या असुन्दर काव्य को अग्राह्य कहा था-काव्यं ग्राह्यमलङ्कारात । इस अर्थ में कवि की सभी उक्तियों का सौन्दर्य अलङ्कार है। काव्य के वे सभी तत्त्व, जो काव्य में शोभा का आधान बनते हैं, व्यापक अर्थ में अलङ्कार के अङ्ग हैं। अलङ्कार का दूसरा विशिष्ट अर्थ (जिस अर्थ में शब्द और अर्थ के अनुप्रास उपमादि अलङ्कार कहलाते हैं) उस शब्द की करण-व्युत्पत्ति से उपलब्ध है। करण-व्युत्पत्ति से अलङ्कार शब्द का अर्थ होता है-वह तत्त्व, जो काव्य को अलङ्कृत अर्थात् सुन्दर बनाने का साधन हो (अलक्रियतेऽनेन इति अलङ्कारः)-करणव्युत्पत्त्या पुनरलङ्कारशब्दोऽयमुपमादिषु वर्तते । आज अलङ्ककार शब्द का यही अर्थ अधिक प्रचलित है। १. काव्यालङ्कारसूत्र, १/१/२ । २. वहो, १/१/१ । ३. वही, १११/२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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