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जैनमेघदूतम् में अलङ्कार-विमर्श
अलङ्कार : सामान्य परिचय :
कवि प्रकृति से शिक्षा लेने वाला एक अतिभावुक व्यक्ति होता है। वह अपनी रचनाओं को अलङ्कारों से सजाने का भी प्रेमी होता है। वह जो कुछ भी लिखता है, उसे सजाता अवश्यमेव है। वह अपनी रचना को सुन्दर बनाने के लिए नयी-नयी सामग्री एकत्रित करता है और उस सामग्री का ऐसा सरस-विन्यास करता है कि उस पर दृष्टि पड़ते ही नेत्रों को एक विशेष प्रकार का आनन्द आ जाता है और उसको सुनते ही लोगों का मन स्वतः उधर आकृष्ट हो जाता है। कवि हो या लेखक या कोई वक्ता, सभी अपने विचारों को व्यक्त करने से पूर्व अपने उन विचारों को मनोरम बनाने के हेतु उन्हें सजाते हैं । जिन साधनों द्वारा काव्य या लेख सुन्दर बनाया जाता है तथा हृदयहारी अद्भुत शक्ति से वह सम्पन्न किया जाता है, उनमें से अन्यतम साधन है-अलङ्कार। वाणी के ये अलङ्कार मानव की सहज प्रवृत्ति और रुचि से आविर्भूत हैं । लोक-जीवन में अनेक प्रकार के अलङ्करणों से, साज-सज्जा से दूसरों की धारणा को प्रभावित करने की प्रवृत्ति जन-सामान्य में पायी जाती है। काव्यजगत् में भी काव्य की उक्तियों को अधिकाधिक चमत्कारपूर्ण तथा प्रभावोत्पादक बनाने के लिए उन्हें अलङ्कृत किया जाता है। काव्योक्तियों में लोकोत्तर-चमत्कार अपेक्षित रहता है । लोकातिगामी चमत्कार की सृष्टि में ही कवि-प्रतिभा की सार्थकता है। लोक-व्यवहार में प्रयुक्त अनलकृत शब्द और अर्थ अलङ्कृत होकर अर्थात् चमत्कारपूर्ण भङ्गी विशेष से कथित होने पर काव्य-पदवी प्राप्त कर लेते हैं
यानेव शब्दान्वयमालपामो यानेव चान्वयमुल्लिखामः ।
तैरेव विन्यासविशेषभव्यैः संमोहयन्ते कवयो जगन्ति । कवि-प्रतिभा से समुद्भूत उक्तियों के अलोकसिद्ध सौन्दर्य को कुछ आचार्यों ने व्यापक अर्थ में अलङ्कार कहा है-सौन्दर्यमलङ्कार' : अर्थात् उनके अनुसार अलङ्कार सौन्दर्य का पर्याय है। १. शिवलीलार्णव, १/१३ । २. काव्यालङ्कारसूत्र, १/१/२। . .
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