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भूमिका : १३३
इन अनेक विशेषताओं के कारण निस्सन्देह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार काव्य में दूत के रूप में प्रतिपादित मेघ गर्जन ध्वनि वाला है, उसी भाँति कालिदास का यह सम्पूर्ण मेघदूत काव्य भी अत्यन्त गम्भीर एवं मर्मस्पर्शी काव्य-ध्वनि से युक्त है । ध्वनि-प्रधान होने के कारण ही इस काव्य को उत्तम काव्य की श्रेणी में रखा गया है। तभी तो कालिदास ने अपने काव्य के भावों को अधूरा ही छोड़, उसके कल्पित शेष भावों को सहृदय पाठकों की संवेदनशीलता पर छोड़ दिया है । यक्ष कर्तव्य - च्युत कैसे हुआ ? उसका कनकवलय कैसे भ्रष्ट हुआ ? और दुःसह ग्रीष्मावसानानन्तर मेघ का आलोक होने पर साधारण मनुष्य के हृदय में विशेषकर प्रणयी एवं प्रणयिनी के हृदय में - कैसी-कैसी भाव-धाराएँ प्रवाहित होने लगती हैं ? ये सब सहृदय के हृदय से ही संवेद्य हो सकता है । अतः कालिदास का काव्य ध्वनि से आकण्ठ पूरित मिलता है । इसी विषय में महर्षि अरविन्द की कालिदास के बारे में यह टिप्पणी विशेष उल्लेख्य है
" कालिदास मूर्धन्य कलाकार हैं, भावना में गम्भीर तथा रचना में मधुर, नाद एवं भाषा के स्वामी, जिसने गीर्वाणगिरा की असीम सम्भावनाओं में से अपने लिए वैसी पद्य-पद्धति तथा पद-योजना का निर्माण कर लिया है, जो निश्चितरूपेण अत्यधिक महान्, अत्यधिक शक्तिशाली एवं अत्यधिक नाद - विकसित है । कालिदास ने संस्कृत को श्रेष्ठ नाद के भव्यप्रासाद में निर्मित कर दिया है और उनकी कृतियों से निर्गत होने वाली ध्वनि, वही ध्वनि है - जो प्राक्तन् साहित्य की सर्वोत्तम रचनाओं में मिलती है ।"
निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि ध्वनि के प्रयोग में कालिदास जिस सीमा तक पहुँच गये हैं, ध्वनि की उस सीमा तक पहुँचने का आचार्य मेरुतुङ्ग ने भी पर्याप्त प्रयास किया है, परन्तु न सही उस सर्वोच्चता को, परञ्च किञ्चित् अर्थों में तो उनके इन ध्वनि प्रयोगों ने भी सफलता प्राप्त कर ली है ।
१. कालिदास : श्री अरविन्द, (सेकेण्ड सीरीज ),
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पृ० १६-१७ ।
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