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१३२ : जनमधदूतम्
अतः इस बात का स्पष्टतया सङ्केत मिलता है कि जितनी सूक्ष्म एवं सहज पदों से युक्त शैली में कालिदास ने अपने भावों का स्वाभाविकतापूर्ण प्रकाशन कर दिया है, उतनी सूक्ष्मतापूर्ण शैली की अपेक्षा आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपने काव्य को अतिगूढ भाषायुक्त शैली में प्रस्तुत किया है।
ध्वनि द्वारा अपने काव्य में रमणीयार्थता उत्पन्न करने में कालिदास को सिद्धहस्तता इसी बात से स्पष्ट होती है कि कालिदास के काव्य का प्रत्येक पद और लिङ्ग, वचन तथा विभक्ति इत्यादि ये काव्य के अवयव इतने अधिक रमणीयार्थ-व्यञ्जक सिद्ध हुए हैं कि इन्हीं काव्य-अवयवों से प्रभावित होकर आनन्दवर्धन', मम्मट, विश्वनाथ इत्यादिक अनेक काव्यशास्त्रियों ने उनके काव्य के अनेकानेक श्लोकों को उदाहरणों के रूप में अपने काव्यों में उद्धृत किया है।
१. कः सन्नधे विरहविधुरां त्वय्युपेक्षेत जायां ।
न स्यादन्योऽप्यहमिव जनो यः पराधीनवृत्तिः ।।-ध्वन्यालोक, ३/१ । दोर्षीकुर्वन् पटु मदकलं कूजितं सारसानां । प्रत्यूषेषु स्फुटितकमलामोदमैत्रीकषायः ।।-वहीं, ३/१६ । तालः शिजावलयसुभगः कान्तया नर्तितो मे । यामध्यास्ते दिवसविगमे नीलकण्ठः सुहृदः ।। -वही, ३/४४ । श्यामास्वाङ्ग चकितहरिणीप्रेक्षणे दृष्टिपातं ।
गण्डच्छायां शशिनि शिखिना बहमारेषु केशान् ।।-वही, २/१९ । २. त्वामालिख्य प्रणयकुपितां धातुरागैः शिलाया-- मात्मानं ते चरणपतितं यावदिच्छामि कर्तुम् ।।
--काव्यप्रकाश, ४/२९, श्लोक संख्या ३६ । ३. तां जानीयाः परिमितकथां जीवितं मे द्वितीयं
दूरीभूते मयि सहचरे चक्रवाकीमिवैकाम् । गाढोत्कण्ठां गुरुषु दिवसेष्वेषु गच्छत्सु बालां जातां मन्ये शिशिरमथितां पद्मिनी वान्यरूपाम् ।।
___ --साहित्यदर्पण, ३/८४ । मामाकाशप्रणिहितभुजं निर्दथाश्लेषहेतोलब्धायास्ते कथमपि मया स्वप्नसंदर्शनेन । पश्यन्तीनां न खलु बहुगो न स्थलोदेवतानां मुक्तास्थूलास्तरुकिसलयेष्वभुलेशाः पतन्ति ।।-वही, ३/१५२ ।
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