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भूमिका : १३१
इस श्लोक में दीर्घ समास से युक्त एवं क्लिष्टतम अर्थों से युक्त पदावली का प्रयोग कर आचार्य मेरुतुङ्ग ने ध्वनि-विषयक व्ययार्थ को अभिव्यञ्जित किया है, जबकि इसके विपरीत कालिदास के श्लोक कितने ही श्लिष्ट एवं सहजबोध्य छोटी-छोटी पदावली में मिलते हैं । यथातां जानीथाः परिमितकथां जीवितं मे द्वितीयं दूरीभूते मयि सहचरे चक्रवाकीमिवैकाम् । गाढोत्कण्ठां गुरुषुदिवसेष्वेषु गच्छत्सु बालां जातां मन्ये शिशिरमथितां पद्मिनीं वान्यरूपाम् ॥'
इस श्लोक में कितने ही सरल एवं लघु शब्दों का प्रयोग कर कालिदास ने ध्वनि द्वारा व्यङ्ग्यार्थ को अभिव्यञ्जित किया है कि जिसप्रकार रात्रि के बीतने पर चक्रवाकी का अपने प्रिय चक्रवाक से समागम होता है, उसी तरह शाप की अवधि के बीत जाने पर मेरी ( यक्ष की) पत्नी का भी मेरे (यक्ष के साथ समागम होगा ।
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इसी प्रकार दोनों काव्यों के सूक्ष्मावलोकन से एक अन्य बहुत बड़ा अन्तर स्पष्ट होता है कि कालिदास ने जहाँ कुछ गिने-चुने शब्दों द्वारा भाव का एक रेखाचित्र खींचकर, उसमें रंग भरने का कार्य सहृदय पाठकों पर आश्रित कर दिया है, वहीं आचार्य मेरुतुङ्ग किसी भी रम्य - कल्पना के मन में आते ही लम्बे-चौड़े शब्दों में उसका वर्णन करने लगे हैं । अतएव इस दृष्टि से कालिदास का मेघदूत काव्य आचार्य मेरुतुङ्ग के जैनमेघदूतम् काव्य की अपेक्षा अधिक खरा उतरा है; क्योंकि कालिदास का काव्य “क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति" वाली रमणीयत्व की कसौटी पर पूर्णरूप से विशुद्ध उतरता है, उनके काव्य को पढ़ते-पढ़ते मन कभी ऊबता नहीं है, जबकि आचार्य मेरुतुङ्ग इस कसौटी तक नहीं पहुँच पाये हैं । उन्होंने बहुत ही लम्बे-लम्बे वर्णनों की एक शृङ्खला सी लगा दी है, यथा- प्रथम सर्ग मनाथ की बाल-क्रीड़ा, पराक्रम-लीला; द्वितीय सर्ग में वसन्त-वर्णन | इसी प्रकार तृतीय सर्ग का विवाह महोत्सव - वर्णन भी कुछ अधिक ही लम्बा किया गया है और चतुर्थ सर्ग में तीखे उपालम्भ प्रस्तुत किये गये हैं । इसके विपरीत कालिदास ने " गागर में सागर " भरने वाली उक्ति का वास्तविक पालन करते हुए अपने काव्य को उसी रूप में प्रस्तुत किया है ।
९. मेघदूत : कालिदास, उत्तरमेघ २० ।
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