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________________ १३० : जैनमेघदूतम् क्योंकि यद्यपि मुनीन्द्र जन्म और मोक्ष दोनों में ही निस्पृह होते हैं, फिर मोक्ष में प्रवृत्त होने से उन्हें मोक्ष का इच्छुक कहा गया है । कायोत्पादात्स्वजनवदनेऽतानि वर्णस्य तुल्यं कृत्यं चाशाव्रततिनिकरोत्कर्तनान्नाथ ! नाम्नः । अर्थादर्थान्तरमभियता द्राग्यथा चान्वयस्यासत्कर्मेभप्रमथसमये कारि मा मातुरित्थम् ॥' इस श्लोक में " कारि मा मातुरित्थम् " इस पद से व्यङ्ग्य रूप में यह अभिव्यञ्जित हो रहा है कि असत्कर्मरूपी हाथी के विनाश के समय आप भी मत भागियेगा, क्योंकि आपकी माता का नाम शिवा है और शिवा, शृगाली (सियारिन ) को भी कहते हैं । अतः जैसे शृगालीपुत्र ( सियार ) भीरु होने के कारण किसी कठिन अवसर पर भाग जाता है, खड़ा नहीं रहता है, वैसे ही आप भी मत भागियेगा । यह बात यहाँ ध्वनि रूप में वनित हो रही है । इस प्रकार जैनमेघदूतम् में ध्वनि-विषयक अनेक प्रयोग उपलब्ध होते हैं । ध्वनि - समीक्षण (कालिदासीय मेघदूत के परिप्रेक्ष्य में) : जैनमेघदूतम् में अभिव्यञ्जित ध्वनि-प्रयोगों के मूल्याङ्कन हेतु हम यहाँ कालिदासीय मेघदूत में अभिव्यञ्जित ध्वनि-प्रयोगों के साथ उसकी तुलना प्रस्तुत कर रहे हैं । हम देखते हैं कि दोनों ही कवि अपने-अपने काव्यों को अत्यधिक चमत्कारपूर्ण बनाने के लिए ध्वनि के प्रयोग में सिद्धहस्त हैं । परन्तु यहाँ विशेष ध्यातव्य यह है कि इस ध्वनि - सिद्धान्त को अपने काव्य में प्रतिपादित करने में जहाँ कालिदास ने अतिलघुतापूर्ण पदावली को अपने काव्य में प्रयुक्त किया है, वहीं आचार्य मेरुतुङ्ग ने अतीव क्लिष्टतम पदावली का प्रयोग कर अपने काव्य में ध्वनि को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । यथा त्वं जीमूत! प्रथितमहिमानन्यसाध्योपकारेः कस्त्वां वीक्ष्य प्रसृतिसदृशौ स्वे दृशौ नो विधत्ते । दानात्कल्पद्रुमसुरमणी तौ त्वयाऽधोऽक्रियेतां कस्तुभ्यं न स्पृहयति जगज्जन्तजीवातुलक्ष्म्यै ॥ १. जैनमेघदूतम्, ४/३६ । २ . वही, १/१२ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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