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भूमिका : १२९ इस श्लोक में कवि ने भगवान् श्रीनेमि की कल्पवृक्ष से उपमा दी है, परन्तु यहाँ ध्वनि के सन्दर्भ में श्रीनेमि की कल्पवृक्ष से भी श्रेष्ठता ध्वनित हो रही है।
पित्र्यः सोऽयं तव मुररिपुः सुन्दरीणां सहस्रः लोलागारेऽनुपरततरः सन्ततं रमीति। . ऊरीक क्षणमुदसहस्त्वं तु नैकामपोदक
सामर्थेऽपि प्रकृतिमहतां कोऽथवा वेत्ति वृत्तम् ॥' इस श्लोक में ध्वनित हो रहा है कि अत्यन्त दक्ष लोगों की चतुराई को कौन समझ सकता है। यहाँ यह उपहास, व्यङ्गय रूप में अभिव्यञ्जित हो रहा है।
गोत्रस्यादावशकलपुरे चावरं वर्णमग्योज्जाग्रद्वर्णामृपतदमपि त्वं तु नातिष्ठपो माम् । शीलं यद्वोन्नतिमत इदं जात्यवर्णानपेक्षं
मेरुर्नाम्ना वहति शिरसा चैतमुन्नीलचूलः ॥२ इस श्लोक में व्यङ्गय रूप में महान् लोगों का उपहास ध्वनित हो रहा है।
आसीदाशेत्यमम ! महिषो प्रीतये ते जनिष्ये श्यामा क्षामा त्वकृषि विधिना प्रत्युतोषोत्प्रदोषा। पश्याम्येवं यदि पुनरजात्मत्वमप्यापयिष्ये
मूलात्कर्मप्रकृतिविकृतीः सर्वतोऽपि प्रकृत्य ॥ इस श्लोक में व्यङ्गय रूप में यह ध्वनित हो रहा है कि पति तथा पुत्र विहीन स्त्री भी व्रत-कष्टों को सहन करती हुई सिद्धत्व को प्राप्त कर सकती है।
यावज्जीवं मदुपहितहज्जीवितेनः शयेन प्रेम्णा पास्यत्यमृतमपि मे विन्नमासीत्पुरेति। प्रवज्यायाः पुनरभिलषंस्तन्मुखेनामुचन्मां
ज्ञानश्रीयुक् तवथ कमितोन्मुच्य तां तन्नमोऽस्तु ॥ इस श्लोक में कवि ने राजीमती द्वारा श्रीनेमि को जो नमस्कार करवाया है, उसमें ध्वनि रूप में ईर्ष्याभाव अभिव्यजित हो रहा है, १. जैनमेघदूतम्, ४१९ । २. वही, ४/३३ । ३. वही, ४/३४ । ४. वही, ४/३५ ।
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