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________________ २: जैनमेघदूतम् (सन्देशकाव्य एवं दूतकाव्य) उपयुक्त तथा अर्थसंगत ही हैं। परन्तु प्रस्तुत स्थल का समग्र विवेचन करने से पूर्व ही हमारा विवेच्यबिन्दु दूतकाव्य पर स्थिर हो जाता है, अतः अब हमारा विवेच्य-लक्ष्य दूतकाव्य ही है। 'दूत' शब्द की व्युत्पत्ति : सर्वप्रथम दूत शब्द की व्युत्पत्ति पर विचार अभिप्रेत है दु गतौ + क्त (त) = दूत' दुतानिभ्यां वीर्घश्च (उ०३।९०) सूत्र द्वारा दु के उ को दीर्घ होकर दूत शब्द व्युत्पन्न हुआ है। अमरकोष में दूत का अर्थ निम्नवत् स्पष्ट किया गया है-स्यात्सन्देशहरो दूतः । - आचार्य हेमचन्द्र ने अभिधान-चिन्तामणि में दूत की परिभाषा इस प्रकार से की है-दूतः सन्देशहारकः । दूयतेऽनेन यथोक्तवादित्वात् पर इति दूतः 'शोरी'। सन्देशं मुख्याख्यानं हरति संदेशहारकः ।' दूत शब्द की इस व्युत्पत्ति के आधार पर सन्देशहारक (किसी एक व्यक्ति के सन्देश को उसके दूसरे अभीष्ट व्यक्ति तक पहुँचाने वाले व्यक्ति) को दूत कहते हैं । यह दूत, नायक-नायिका की मनःस्थिति का केवल पता ही नहीं लगाता, अपितु दोनों के मन में प्रेमभाव को भी उद्दीप्त करने का प्रयास करता है। साथ ही यह दूत नायक-नायिका के सम्मिलन-सन्देश को ही नहीं कहता है, अपितु उन दोनों के मिलन-स्थान का भी संकेत करता है तथा दोनों का मानभंग करने का भी प्रयास करता है। १. (क) अमरकोष, २।६।१६ । (ख) शब्दकल्पद्रुम, द्वितीय काण्ड, पृ० ७३५ । (ग) वाचस्पत्यम्, पंचम भाग, पृ० ३६५५ । (घ) वैदिक पदानुक्रम कोष, तृतीय खण्ड, पृ० १६५९ । (ङ) शब्दरत्नमहोदधि, द्वितीय भाग, पृ० १०३८ । २. अमरकोष, २।६।१६ । ३. अभिधानचिन्तामणि, ३।३९८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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