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भूमिका
संस्कृत दूतकाव्य साहित्य में दूत का सम्प्रेषण सर्वविदित है। यह भी स्पष्ट है कि नायक अथवा नायिका का अपनी प्रेयसी अथवा प्रिय के पास विरहावस्था में प्रणयसन्देश भेजना ही इस दूत का मुख्य प्रतिपाद्य रहा है। प्राचीन शास्त्रकारों ने सन्देश का लक्षण दिया है
सन्देशस्तु प्रोषितस्य स्ववार्ता प्रेषणं भवेत् । अतः दूत द्वारा सन्देश-सम्प्रेषण ही इन काव्यों का मुख्य विषय रहा है। इसी आधार पर ही इन काव्यों को–'सन्देश-काव्य' अथवा 'दूतकाव्य' इन दोनों नामों से अभिहित किया जाता है। दोनों का अर्थभाव एक समान ही है। मात्र कुछ अन्तर है तो इन दोनों शब्दों की व्युत्पत्ति और बाह्य रूप में।
मेघसन्देश के रूप में इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार होगी
मेघस्य सन्देशः अथवा मेघाय उक्तः सन्देशः मेघसन्देशः, स एवाभेदोपचारात्तत्संज्ञो ग्रन्थः ।
दक्षिण भारत तथा श्रीलंका में रचित ऐसे समस्त काव्य प्रायः सन्देशकाव्य ही कहे गये हैं। सन्देश की प्रधानता तथा सन्देशान्त नाम कुछ अधिक मधुर एवं कर्णप्रिय होने के कारण ही शायद मल्लिनाथ ने भी मेघदूत को अपनी टीका में मेघसन्देश शब्द ही प्रयुक्त किया है।
मेघदूत के रूप में इसको व्युत्पत्ति इस प्रकार होगी
मेघः दूतः यस्मिन् काव्ये तत् मेघदूतम् अथवा मेघश्चासौ दूतश्च मेघदूतः स एवाभेदोपचारात्तत् संज्ञ काव्यम् । ।
उत्तर भारत तथा बंगाल में रचित ऐसे सभी काव्य प्रायः दूतकाव्य के रूप में ही प्रस्तुत किये गये हैं। सौन्दर्य की उपयुक्तता एवं सन्देश की भाव-प्रवणता पर ही निर्भर होने के कारण उपरोक्त दोनों ही नाम
१. साहित्यदर्पण, ३१४९ । २. मेघदूतम्, मल्लिनाथीय सञ्जीवनी टीका, पूर्वमेघ, प्रथम श्लोक ।
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