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________________ भूमिका : १२७ इस श्लोक में वर्षाकाल में विरहिणी स्त्रियों को होने वाली काम - व्यथा ध्वनि रूप में अभिव्यञ्जित हो रही है । त्वं जीमूत ! प्रथितमहिमानन्यसाध्योपकारैः कस्त्वां वीक्ष्य प्रसूतिसदृशो स्वे दृशौ नो विधत्ते । दानात्कल्पद्रुमसुरमणी तौ त्वयाऽधोऽक्रियेतां कस्तुभ्यं न स्पृहयति जगज्जन्तुजीवातुलक्ष्म्ये ॥" यहाँ पर कवि ने श्रीनेमिनाथ को कल्पवृक्ष और सुरमणि से भी श्रेष्ठ बतलाकर व्यंग्य रूप में श्रीनेमिनाथ की महानता को अभिव्यञ्जित किया है । यस्य ज्ञात्वा जननमनघं कम्पनादासनानामास्यां तासामिव न सहतां पूज्यपूजाक्षणेऽस्मिन् । दिक्कन्याः षट्शरपरिमिताः साङ्गजायाः सवित्र्याः सम्यक् चक्र: कनककदली सद्मगाः सूतिकर्म ॥ २ इस श्लोक में कवि ने श्रीनेमिनाथ तथा उनकी माता का सूतिका कर्म दिक्-कन्याओं द्वारा करवाकर श्रीनेमिनाथ की अतिमहानता को ध्वनि रूप में अभिव्यञ्जित किया है, क्योंकि सामान्यतया समाज में जन्म के समय शिशु तथा माता का सूतिका कर्म सामान्य दाई द्वारा ही सम्पन्न होता है । ये ये भावाः प्रियसुतकृते प्रक्रियन्ते प्रसूभि - स्तांस्तांस्तस्तायनिषत हरिप्रेरिता देव्य एव । नानारूपाः सदृशवयसो हंसवद्वीचयस्तं देवा एवानिशमरमयत्केलियापीषु भक्त्या ॥ इस श्लोक में भी श्रीनेमिनाथ को महानता ध्वनि रूप में अभिव्यञ्जित हो रही है, क्योंकि समाज में प्रायः बच्चे की वृद्धि के सारे हेतु माता ही करती है, जबकि श्रोनेमि की वृद्धि के समस्त हेतु - क्रियाओं को इन्द्रप्रेरित अप्सराओं ने किया और देवताओं ने उनको केलिवापियों में रमाया । कृत्स्नवात्सल्यखानी आगृह्णानापतिकृते पौनःपुन्यात्प्रकृतिसरलौ क्षीरकण्ठाविवैतौ । लप्स्ये लोकम्पूणगुणखनों चेत्कनों तद्विवक्ष्येऽतीक्ष्णोक्त्येत्यागमयत कियत्कालमेषोऽप्यलक्ष्यः ॥ ४ १. जैनमेघदूतम्, १/१२ । २. वही, १/१६ । ३. वही, १/२० ४. वही, १/३१ । Jain Education International . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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