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________________ १२६ : जैनमेघदूतम् उत्पन्न कर देता है, उसी प्रकार कवि भी रस द्वारा एक नवीन चमत्कार पैदा कर पुराने अर्थों में एक नवीनता का पुट भर देता है । यही ध्वनि का चमत्कार है। ध्वनि के इसी चमत्कार से मण्डित काव्य को उत्तम काव्य का स्थान प्राप्त होता है। हम देखते हैं जहाँ साधारण व्यक्ति अधिकतर अभिधावृत्ति से अपने अभिप्राय को प्रदर्शित करते हैं, वहाँ कुछ मध्यम प्रतिभावाले व्यक्ति, लक्षणावृत्ति के द्वारा अपने भावों को व्यक्त कर लेते हैं। परन्तु कुछ व्यक्ति, मध्यम प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति से भी ऊपर होते हैं, वे परिपक्व विचारशील व्यक्ति लक्षणावृत्ति की भी सतह से कुछ ऊपर उठकर व्यञ्जनावृत्ति के द्वारा अपने अभिप्राय को अति सूक्ष्मतया अभिव्यक्त कर ले जाते हैं, यही परिपक्व विचारवान् व्यक्ति ध्वनिकवि कहे जाते हैं। जैनमेघदूतम् में ध्वनि : __ जैनमेघदूतम् में ध्वनि-सम्बन्धी अनेक प्रयोग उपलब्ध होते हैं । यद्यपि आचार्य मेरुतुङ्ग ने एक काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त के रूप में लेकर इस ध्वनि को अपने काव्य में नहीं प्रयुक्त किया है, फिर भी सामान्य शैली में रचित होने पर भी इसमें ध्वनि-अभिव्यञ्जन के अनेक स्थल दृष्टिगत होते हैं। कश्चित्कान्तामविषयसुखानोच्छुरत्यन्तधीमानेनोवृत्तिं त्रिभुवनगुरुः स्वरमुज्झाञ्चकार । दानं दत्वा सुरतरुरिवात्युच्चधामारुरुक्षुः पुण्यं पृथ्वीधरवरमथो रैवतं स्वोचकार ॥' काव्य का यह प्रारम्भिक श्लोक ही ध्वनिपूरित मिलता है । इस श्लोक के प्रारम्भिक शब्द "कश्चित्" से व्यंग्य रूप में काव्य-नायक श्रीनेमि का बोध हो रहा है। नीलीनीले शितिलपनयन् वर्षयत्यशु वर्षन् गर्जत्यस्मिन् पटु कटु रटन् विद्ययत्योष्ण्यमियत् । वर्षास्वेवं प्रभवति शुचे विप्रलब्धोऽम्बुवाहे वामावर्ग: प्रकृतिकुहनः स्पर्धतेऽनेन युक्तम् ॥ १. जैनमेघदूतम्, १/१ । २. वही, १/६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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